समाज द्वारा संस्कारित मन निजता से अनछुआ

ये बात बिल्कुल ठीक है कि आदमी से आदमी का संबंध होता है और उसी का नाम समाज है। पर असल में ऐसा होता कहाँ है? मैं और आप मिलते हैं, तो हम व्यक्तियों की तरह कहाँ मिलते हैं? मैं होता हूँ, आप होते हैं और समाज होता है। हम ये समझ ही नहीं पाते हैं कि मैं और आप ही हैं। उसमें समाज जैसा कुछ है ही नहीं। पर वो सिर्फ़ उनके लिए है, जो वास्तव में, इंडिविजुअल ही हों।

जो संस्कारित (इन्फ्लुएंसड) मशीन हैं, वहाँ पर दो नहीं, तीन चीजें हो जाती हैं। मशीन से मशीन मिलती है, तो वहाँ पर दो इकाइयाँ नहीं हैं, वहाँ पर तीन इकाइयाँ हो जाती हैं। इंडिविजुअल से इंडिविजुअल मिले तो सिर्फ़ दो इकाइयाँ रहेंगी। पर जब मशीन से मशीन मिलती है तो तीन हो जाती हैं। ये तीसरी इकाई क्या है? ये तीसरी इकाई है, उन दोनों का मालिक। उसको आप जो भी बोलना चाहें, बोल दीजिये।

रमण महर्षि उसी की ओर इशारा कर रहे हैं। जब बार-बार कह रहे हैं कि “सोसाइटी की इम्पोर्टेंस है” तो वो बार-बार कह रहे हैं कि हम और तुम तो ठीक हैं, पर हमारा मालिक भी तो है। और वो मालिक के रूप में किसी बोध (इंटेलिजेंस) की बात नहीं कर रहे हैं। वो कंडीशनिंग की बात कर रहे हैं कि “हम और तुम और साथ में जो तीसरी बैठी है, उसकी भी तो बात करो। वो जो कंडीशनिंग है।”

जब दो इंडिविजुअल्स मिलते हैं तो सिर्फ़ दो लोग होते हैं। मैं मिला तुमसे तो मैं हूँ और तुम हो। पर हम ऐसे नहीं मिलते। हम मिलते हैं — मैं मिला तुमसे और साथ में धर्म भी बैठा हुआ है, साथ में हमारा अतीत भी बैठा हुआ है। साथ में ये बैठा हुआ है कि तुम कैसे आर्थिक पृष्ठभूमि से हो और मैं…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org