समाज द्वारा संस्कारित मन निजता से अनछुआ
ये बात बिल्कुल ठीक है कि आदमी से आदमी का संबंध होता है और उसी का नाम समाज है। पर असल में ऐसा होता कहाँ है? मैं और आप मिलते हैं, तो हम व्यक्तियों की तरह कहाँ मिलते हैं? मैं होता हूँ, आप होते हैं और समाज होता है। हम ये समझ ही नहीं पाते हैं कि मैं और आप ही हैं। उसमें समाज जैसा कुछ है ही नहीं। पर वो सिर्फ़ उनके लिए है, जो वास्तव में, इंडिविजुअल ही हों।