नारी देह है आपकी, पर नारी नहीं आप!

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कुछ ख़ास दिन जैसे नवदुर्गा के नौ दिनों में सब द सेक्रेड फेमिनिन (पवित्र स्त्रीत्व) वगैरह की बहुत बातें करते हैं। हर जगह स्त्री शक्ति का ही ज़ोर रहता है। पंडालों में भी देवी और अखबारों में भी नारी का, स्त्री का महिमामंडन रहता है और तब सब कहते हैं कि स्त्री का सम्मान सर्वोपरि है। जब नवदुर्गा बीत जाती है, तब ये सब शान्त हो जाता है। तो क्या महिलाओं को इज़्ज़त सिर्फ़ नवदुर्गा में मिलनी चाहिए?

आचार्य प्रशांत: सम्मान का अधिकारी न पुरुष होता है न स्त्री होती है। इज़्ज़त न आदमी को मिलनी चाहिए न औरत को मिलनी चाहिए। न नर, न नारी, किसी को नहीं, क्योंकि ये सब तो देह के नाम हैं न, लिंग के नाम है न। लिंग का निर्धारण तो जन्म से ही हो जाता है। जन्म में आपने क्या करा है जो उसके लिए आपको इज़्ज़त मिल जाए? जब आप कहते हैं, ‘स्त्रियों का सम्मान होना चाहिए’, स्त्री तो आप जन्म से ही हैं, और अपने जन्म में आपने तो कुछ किया नहीं था, तो आपको किस बात का सम्मान?

इसी तरीक़े से जो पुरुष है, वो पुरुष तो जन्म से ही है, अचानक बीच में अपनी यात्रा में तो बन नहीं गया कि पाँचवें साल में उसने कुछ ऐसा करतब कर दिखाया कि वो पुरुष बनने का हक़दार कहलाया। ऐसा तो कुछ होता नहीं है। वो पुरुष जो है, वो पहले ही दिन से ही पैदा लड़का हुआ था। और लड़का पैदा होने में उसकी न तो अपनी कोई पात्रता है न श्रम। तो उसे इस बात की इज़्ज़त क्यों मिलना चाहिए कि वो लड़का है।

लड़की को भी इस बात की इज़्ज़त क्यों मिलनी चाहिए कि वो लड़की है। ये बात क्या है? तो मैं कह रहा हूँ, सम्मान का अधिकारी न पुरुष न स्त्री, न नर न नारी, न लड़का न लड़की, कोई नहीं। न बच्चा न बूढ़ा, न अमीर न ग़रीब, न काला न गोरा। सम्मान का अधिकारी कोई नहीं है क्योंकि ये सब किसके नाम हैं? ये सब शरीर के नाम हैं। शरीर की एक अवस्था का नाम है वृद्धावस्था और शरीर की ही अवस्था का नाम है बाल्यावस्था। शरीर का रंग गोरा, तो आप गोरे हैं। शरीर छोटा, तो आप छोटे हैं। इन सब बातों पर क्या इज़्ज़त और कौनसी बेइज़्ज़ती। इन सब बातों पर अगर इज़्ज़त मिलने लग गयी तो बड़ा गड़बड़ हो जाएगा।

इसी तरीक़े से रूप-रंग है, शरीर की चीज़ है, उस पर क्या इज़्ज़त मिलनी है! आपने क्या करा है कि इज़्ज़त मिल जाए? तो ये ग़लती मत कर दीजिएगा कि स्त्री होने के नाते आप सम्मान माँगना शुरू कर दें कि मैं तो स्त्री हूँ, तो मुझे विशेषाधिकार मिलना चाहिए। कोई एक्स्ट्रा प्रिविलेज (अतिरिक्त विशेषाधिकार) नहीं, कोई विशेषाधिकार नहीं। कुछ नहीं। जैसे पुरुष को नहीं मिलना चाहिए वैसे ही स्त्री को भी नहीं मिलना चाहिए। चेतना को मिलना चाहिए। आपने पहली भूल वही कर दी जहाँ आपने अपनेआप को स्त्री बोल दिया। आप स्त्री नहीं हैं, आप चेतना हैं।

ये ग़लती आप कैसे कर देती हैं कि अपनेआप को स्त्री बोल देती हैं। आप पुरुषों वाली ग़लती दोहरा रही हैं। पुरुषों ने ग़लती करी, उन्हें करने दो। आप क्यों अपनेआप को स्त्री बोलती है? वो अपनेआप को न जाने क्या माने बैठे हैं? वो अपनेआप को जो भी मानते हैं, मानने दीजिए। ‘मैं मर्द तांगेवाला’, बने रहने दीजिए उन्हें मर्द, ‘मर्द को दर्द नहीं होता’। वो मर्द बने या कुछ बने, आप स्त्री मत बन जाइएगा। आप चेतना हैं।

और आपको सम्मान बिलकुल मिलना चाहिए, अगर बतौर चेतना आप ऊँचे सिंहासन पर बैठी हुई हैं। जितनी ऊँची आपकी चेतना है, उतना ही ऊँचे आप सम्मान की अधिकारिणी हैं। जितना आप श्रेष्ठ जीवन जी रही हैं, उतना ही आपको सम्मान मिलना चाहिए। लिंग के नाते सम्मान मत माँगिएगा, बड़ी ग़लत बात है। कोई आपको लिंग के नाते सम्मान देने भी आ जाए, तो आप ले मत लीजिएगा। और बहुत लोग होते हैं, वो ऐसे ही, ‘अरे स्त्री हैं, तो उनको सम्मान देना ही चाहिए न।’ लोग बड़ी ठसक के साथ बताते हैं।

इसको शिवल्री (शिष्टता) बोलते हैं। ‘आई एम वेरी रिस्पेक्टफुल टुवर्ड्स वुमेन (मैं महिलाओं के प्रति बहुत सम्मानजनक हूँ)’। हें भई! और अगर वो अभी किसी की जेब काटकर के आयी है, तुम तब भी रिस्पेक्टफुल रहोगे? नहीं, पूछ रहा हूँ, स्त्री किसी की जेब नहीं काट सकती? नहीं काट सकती तो फिर ये महिला जेल क्यों होती है? स्त्रियों के लिए क़ैदख़ाने क्यों होते हैं अगर सब स्त्रियाँ सम्मान की ही पात्र हैं तो? उनको क्यों फाँसी दी जाती है?

इस देश की एक प्रधानमन्त्री की हत्या ही एक स्त्री ने की थी। ये ‘रिस्पेक्टफुल टुवर्ड्स वुमेन’ क्या होता है? ये उतनी ही बड़ी ग़लती है जितनी बड़ी ये रेस्पेक्टफुल टूवर्ड्स मेन (आदमी के प्रति सम्मानजनक) होना। मैं पूछ रहा हूँ, आपके इतिहास में भी या पौराणिक कथाओं में भी जितने भी अधम चरित्र हैं, वो सब पुरुषों के ही हैं क्या, स्त्रियों के नहीं हैं? शूर्पणखा का नाम नहीं सुना, ताड़का का, पूतना का नहीं सुना? बोलिए! मन्थरा कौन थी? आप इनको नहीं जानते? ‘नहीं-नहीं, मैंने तो अपने बच्चों को शिवल्रस (उदार) और गैलेंड (वीर) बनाया।’ क्या मतलब है?

कोई शूर्पणखा आ गयी है और वो इसी लायक़ है कि उसकी नाक काट दी जाए, तो लक्ष्मण ने काट दी। ठीक वैसे जैसे खर-दूषण को मारा था। भैया खर-दूषण मारे गये, बहन शूर्पणखा की नाक काटी गयी, उसके बाद भैया कुम्भकरण और रावण भी गये। क्योंकि इनमें लिंग भले ही अलग-अलग था, चेतना के तल पर सब एक थे। स्त्री को या पुरुष को नहीं मारा जा रहा, गिरी हुई चेतना के एक मनुष्य को मारा जा रहा है। स्त्री-पुरुष हटाइए न। इंसान को इंसान की तरह देखना सीखिए। क्यों व्यर्थ के विभाजन खड़े करते हैं?

आत्मा एक है और किसी भी मनुष्य का मूल्यांकन बस इसी आधार पर होना चाहिए कि वो कितना आत्मस्थ है। चेतना की ऊँचाई को ही आत्मा कहते हैं। जो जितनी ऊँचाई पर है, वो उतने सम्मान का हक़दार है।

समझ में आ रही है बात?

और अभी मुझे जितनी भी महिलाएँ सुन रही हों, लड़कियाँ सुन रही हों, बहनें सुन रही हों, सबसे मैं बोलूँगा, अपनेआप को महिला, स्त्री, नारी, लड़की समझना छोड़ दो। अपनेआप को चेतना कहा करो, ‘चेतना मात्र हूँ मैं।’ और नारी सशक्तिकरण के नाम पर पुरुषों की भूलें मत दोहराओ। अधिकतर जो नारीवाद चलता है, फेमिनिज्म , वो बस पुरुषों की भूलें दोहराने का नाम है।

कह रहे हैं, ‘हम भी तो अब लिब्रेटेड (मुक्त) हैं। तो पुरुष सड़क पर गाली देता है, तो हम भी सड़क पर गली देंगे। और गाली भी वही देंगे जो पुरुष देता था।’ पुरुष जो देता था, वो माँ और बहन के नाम की थीं। और बड़े मज़ाक की बात है कि स्त्रियाँ भी माँ और बहन के नाम की ही गाली दे रही हैं। एक लड़की देखी मैंने, वो अपने भाई को बहन की गाली दे रही थी। ये है विमेन इमेंसिपेशन (नारी मुक्ति), बहन अपने भाई को बहन की गाली दे रही है!

नारी सशक्तिकरण है नारी का स्वयं को चेतना जानना।

नारी देह से पुरुष नहीं हो सकती लेकिन चेतना से वो सदा से पुरुष है। पुरुष बनना नहीं है, वो चेतना से पुरुष ही है। और उसे अपनेआप को यही बोलना है कि पुरुष हूँ मैं, पुरुष। और इतना और बता दूँ कि बहुत सारे पुरुष, पुरुष नहीं हैं! अधिकांश पुरुष, पुरुष नहीं हैं, वो भीतर से प्रकृति हैं। तो इसलिए मैं सब महिलाओं से निवेदन कर रहा हूँ कि अपनेआप को महिला समझें ही नहीं। आप चेतना हैं, और चेतना का दूसरा नाम होता है पुरुष।

और पुरुषों को मैं सावधान कर रहा हूँ कि सिर्फ़ इसलिए कि लिंग से आप पुरुष हैं, आप अपनेआप को पुरुष मत समझ लीजिएगा। आप पुरुष हैं ही नहीं। और आगे मैं ये नहीं बोलने जा रहा हूँ कि आप महापुरुष हैं। मैं बोलने जा रहा हूँ, आप ‘ना-पुरुष’ हैं। सिर्फ़ इसलिए कि आपके शरीर को देखकर डॉक्टर ने बोल दिया था, ‘बधाई हो! लड़का हुआ है’, आप लड़के नहीं हो गये। पुरुष बनने के लिए बड़ी कवायत करनी पड़ती है। बहुत सम्भावना है कि एक नारी वास्तविक पुरुष हो और पुरुष भीतर से प्रकृति मात्र हो। प्रकृति को ही स्त्री कहते हैं।

शरीर के तल पर बड़ी भूल हो जाती है, बड़ा भ्रम है। बच्चा पैदा होता है, उसका लिंग देख कर वहीं पर नर्स, डॉक्टर बोल देते हैं, ‘लड़की हुई है, अरे! लड़की हुई है’, या ‘बधाई हो! लड़का हुआ है।’ वो तुरन्त हो जाता है। ऐसे नहीं, चेतना के तल पर ऐसे नहीं होता। चेतना के तल पर पुरुषत्व अर्जित करना पड़ता है। चेतना के तल पर हर बच्चा प्रकृति मात्र पैदा होता है, पशु मात्र पैदा होता है। उसे पुरुष बनना पड़ता है।

और ज़्यादातर जो लिंग से पुरुष हैं, वो कभी पुरुष नहीं बन पाते। वो कहने को पुरुष हैं, वो भीतर से स्त्री हैं। स्त्री माने प्रकृति। क्यों? क्योंकि अपनी भावनाओं पर चल रहे हैं, अपनी वृत्तियों पर चल रहे हैं। जो अपनी भावनाओं और वृत्तियों पर चले वो प्रकृतिस्थ हैं। और देह से भले ही कोई स्त्री हो लेकिन वो भावनाओं और वृत्तियों पर चलने की जगह अगर बोध पर चले तो वो पुरुष हो गयी। ये है असली पौरुष।

समझ में आ रही है बात?

तो ये सब छोड़ो कि हम औरत हैं इसलिए इज़्ज़त की हक़दार हैं। मैंने कहा, इज़्ज़त की हक़दार सिर्फ़ चेतना होती है। चेतना के उत्थान में ही पौरुष है। चेतना का उत्थान ही पुरुषार्थ है और चेतना के तल पर स्त्री हो या पुरुष हो — लिंग वाला, देह वाला — उसे पुरुष ही हो जाना है। उन्हीं की संगत करना, उन्हीं को आदर्श बनाना और उन्हीं के सामने सिर झुकना जो चेतना की एक ऊँचाई रखें।

हम सब प्रकृति पैदा होते हैं, हमें पुरुष बनना होता है। पुरुष तो बिरला कोई होता है।

और पुरुष, वास्तविक पुरुष अगर स्त्री की देह में मिले तो बहुत अच्छी बात है। उसे पुरुष ही माना जाना चाहिए। और बहुत बड़ी देह हो किसी पुरुष की (बड़ी देह का इशारा करते हुए) लेकिन भीतर से वो स्त्री हो, तो उसको पुरुष बोलो ही मत। उसको सम्बोधित भी ऐसे ही करो, ‘क्या कर रही है तू?’ क्योंकि वो दिखता है बड़ा भारी, होगा साढ़े छः फीट का, पर भीतर से तो वो प्रकृति पर ही चल रहा है न। प्रकृति समझते हो? हारमोंस (अन्तः स्त्राव) पर चल रहा है, भावनाओं पर चल रहा है, कामनाओं पर चल रहा है। ये कहाँ का पुरुष हो गया, ये पुरुष के नाम पर लानत है!

हमेशा के लिए ये सूत्र याद रखिएगा। देह देखकर नहीं, उम्र देखकर नहीं, लिंग देखकर नहीं, आर्थिक स्थिति देखकर नहीं किसी को भी इज़्ज़त दीजिए; उसकी चेतना देखकर दीजिए। देह से चाहे स्त्री हो, पुरुष हो, काला हो, गोरा हो, बच्चा हो, बूढ़ा हो, ग़रीब हो, अमीर हो, कुछ भी हो। देह से कुछ भी हो सकता है कोई। मन देखिए उसका, चेतना देखिए उसकी, और उसी आधार पर उसको सम्मान दीजिए। ठीक है?

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org