अहम् वृत्ति, और शरीर

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे वृत्तियाँ अपना काम करती हैं कि क्रोध आ गया, डर आ गया। अब जैसे मैं यहाँ से बाहर निकला और मेरी लड़ाई हो जाए तो शरीर को तो डर लगता है उलझने में, लड़ाई करने में, और साथ-ही-साथ यह तादात्म्य बना रहता है कि यह 'मेरा' शरीर है और 'मुझे' चोट लग रही है, तो मैं डर जाता हूँ। तो ये तादात्म्य कैसे टूटे?

आचार्य प्रशांत: हाथापाई चलती रहे?

प्र: नहीं यदि ऐसा कभी...

आचार्य: नहीं यदि क्यों? तुम कह रहे हो कि, "मैं यहाँ से निकलूँगा, हाथापाई होगी, बस उस हाथापाई में शरीर से तादात्म्य ना रहे।" क्यों ना रहे? "ताकि मैं बिलकुल निर्भय हो कर पीट सकूँ।"

(श्रोतागण हँसते हैं)

ये इनकी गुज़ारिश है। पहला सूत्र तो ये है कि आज इससे बच कर रहो। इस बात को बिलकुल ही पचा गया कि इसकी हाथापाई क्यों हो जाती है। उसकी बात ही नहीं करनी है। कह रहे हो हाथापाई जब होती है तो शरीर में भय उठता है, वृत्तियाँ सक्रिय हो जाती हैं। और हाथापाई बिना वृत्तियों के होती है? हाथापाई के मूल में क्या है? वृत्तियाँ हाथापाई के बाद सक्रिय होती हैं या उससे पहले ही सक्रिय थीं इसीलिए हाथापाई हुई? उसकी बात ही नहीं करना चाहता।

समझो — शरीर है, शरीर की अपनी वृत्तियाँ हैं। शरीर की वृत्तियाँ शरीर की हैं, छोड़ो। साँस लेते रहना किसकी वृत्ति है?

प्र: शरीर की।

आचार्य: हाँ। किसी की नाक दबा दो, अपनी ही दबा लो, मिनट भर को दबाओगे देखो चेहरा लाल हो जाएगा। शरीर जीना चाहता है, ठीक? एक उम्र आती है तुम विपरीत लिंग की ओर आकर्षित होने लगते हो, शरीर दूसरे शरीरों को जन्म देना चाहता है, ये सब शरीर की वृत्तियाँ हैं। एकदम बेहोश आदमी हो, कोई विचार ना कर सकता हो, कोमा में…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org