अहम् वृत्ति, और शरीर
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसे वृत्तियाँ अपना काम करती हैं कि क्रोध आ गया, डर आ गया। अब जैसे मैं यहाँ से बाहर निकला और मेरी लड़ाई हो जाए तो शरीर को तो डर लगता है उलझने में, लड़ाई करने में, और साथ-ही-साथ यह तादात्म्य बना रहता है कि यह 'मेरा' शरीर है और 'मुझे' चोट लग रही है, तो मैं डर जाता हूँ। तो ये तादात्म्य कैसे टूटे?
आचार्य प्रशांत: हाथापाई चलती रहे?
प्र: नहीं यदि ऐसा कभी...
आचार्य: नहीं यदि क्यों? तुम कह रहे हो कि, "मैं यहाँ से निकलूँगा, हाथापाई होगी, बस उस हाथापाई में शरीर से तादात्म्य ना रहे।" क्यों ना रहे? "ताकि मैं बिलकुल निर्भय हो कर पीट…