ज़्यादा सोचने की समस्या

“टू मच थिंकिंग” तब होती है, विचार का अतिरेग, वो तब होता है जब आप कर्म का स्थान विचार को दे देते हैं; कर्म का विकल्प बना लेते हैं विचार को। चार कदम चलना है, चल रहे नहीं, डर के मारे या आलस के मारे, या धारणा के मारे, जो भी बात है। तो जो भीतर कमी रह गयी, उसकी क्षति पूर्ती कैसे करते हैं फिर? चलने के बारे में सोच सोच के। करिये ना! सोचिये मत। और जो कर्म में डूबा हुआ है उसको सोचने का अवकाश नहीं मिलेगा। अगर आप जान ही गए हैं, पूर्णतया नहीं, मान लीजिये आंशिक भी; अंशतया भी यदि आपको पता है कि क्या करणीय है, क्या उचित है, तो उसको करने में क्यों नहीं उद्यत हो जातीं?

जितनी ऊर्जा, जितना समय सोच को दे रहीं हैं, वो सब जाना किस तरफ चाहिए था? कर्म की ओर! और ऐसा नहीं है कि आपको बिल्कुल नहीं पता कि उचित कर्म क्या है! पता तो है। और उसका प्रमाण है आपकी बेचैनी। आप यदि बिल्कुल ही न जानती होती कि क्या उचित है तो बेचैन नहीं हो सकती थीं। बेचैनी उठती ही तब है जब सत्य को जान बूझ कर स्थगित किया जाता है। पता है, पर टला हुआ है। तब बेचैनी उठेगी। क्यों टालती हैं? कर डालिये। जो करने में लग गया, वो सोचेगा कैसे? और जो कर नहीं रहा है वो दिन रात बैठे-बैठे क्या करेगा? दिमाग चलाएगा। मैं तो सीख ही यही देता हूँ, सर मत चलाओ, हाथ चलाओ। सर झुकाओ, हाथ चलाओ। और जिसका सर झुका नहीं हुआ है उसका सर? खूब चले, चकरघिन्नी की तरह दौड़ रहा है, दौड़ रहा है। पहुँच कहाँ रहा है? कहीं नहीं। पर दौड़ खूब रहा है।

हाथ चलाइये ना! आप जानती हैं भली भांति कि आप जीवन के जिस मुक़ाम पर खड़ी हैं, वहाँ पर क्या करणीय है। कूदिये उसमें। जो कर्म में उतर गया, उसको…

--

--

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org