ज़िम्मेदारी का भ्रम
--
ज़िम्मेदारी का अर्थ होता है, उचित समय पर उचित काम कर पाने की क्षमता। और क्योंकि समय लगातार बदलता है, लगातार नया होता है इसीलिए जो उचित काम है, वो भी लगातार नया ही होता है।
ठीक इस समय तुम्हें जो करना चाहिए वही तुम्हारी ज़िम्मेदारी है, और कुछ नहीं है तुम्हारी ज़िम्मेदारी और वो ज़िम्मेदारी कोई और तुम्हें नहीं समझा सकता। वो पूर्वनिर्धारित नहीं हो सकती।
ये बातें पहले से तय नहीं की जा सकती। एक ही व्यक्ति के प्रति एक समय पर तुम्हारी एक ज़िम्मेदारी होगी, दूसरे समय पर दूसरी होगी। ज़िम्मेदारी का अर्थ बस ध्यान है, ज़िम्मेदारी का अर्थ है बोध, जानना कि इस समय पर क्या उचित है, यही है ज़िम्मेदारी। जिस भी समय पर जो उचित हो, वही करना ज़िम्मेदारी है।
पर जब तुम कुछ और नहीं जानते जीवन में, उसका उचित होना या उसका अनुचित होना तो तुम ज़िम्मेदारी भी कैसे जानोगे? क्योंकि ज़िम्मेदारी के केंद्र में बोध बैठा है कि क्या मैं समझ रहा हूँ? मैं जीवन को समझ रहा हूँ?
तुम कैसे पूरी करोगे अपनी ज़िम्मेदारी?
दोस्त हो, तो ये तुम्हारी ज़िम्मेदारी है, पूरी करो। भाई हो, तो बहन के प्रति ये तुम्हारा फ़र्ज़ है, पूरा करो। तुम समझ भी नहीं रहे हो कि ये सब ज़िम्मेदारियाँ जो मुझे थमा दी गयी हैं, इसी प्रकार कर देना ठीक है भी या नहीं। तुम्हें इसका एहसास भी नहीं है, तुम्हें तो बस एक एल्गोरिदम दे दिया गया है कि ये आचरण करना चाहिए और उसको तुमने ज़िम्मेदारी का नाम दे दिया है। वो काहे की ज़िम्मेदारी है।
जहाँ प्रेम होता है, वहाँ ज़िम्मेदारी की भावना नहीं होती। मज़े की बात है कि सारी ज़िम्मेदारियाँ पूरी होती हैं पर भावना ये नहीं होती कि मैं ज़िम्मेदारी पूरी कर रहा हूँ। वो एक बोझ की तरह नहीं होती, तुम्हारे लिए ज़िम्मेदारी मन पर एक बोझ की तरह होती है और जिसके भी मन पर ज़िम्मेदारी एक बोझ की तरह है, उसके जीवन में प्रेम की बड़ी कमी है। वरना ज़िम्मेदारी अपने आप पूरी होती चलेंगी, तुम्हें विचार थोड़े ही करना पड़ेगा कि करें पूरी या न करें अथवा क्या करें। तुम ये थोड़े ही कहोगे कि आगे क्या होगा और पीछे क्या होगा। घुटन नहीं महसूस होगी कि अपने रास्ते पर चलना तो चाहते हैं, पर ये ज़िम्मेदारी चलने नहीं देती। वो नहीं अनुभव होगी। ज़िम्मेदारी स्वतः पूरी होती चलेगी और तुम्हें ठीक-ठीक पता होगा कि ये कर देना चाहिए। पर वो पता होने के लिए आँखें खुली होनी चाहिए।
ज़िम्मेदारी के केंद्र में बोध होता है। उसी बोध का दूसरा नाम प्रेम भी है। अपने प्रति प्रेम, पूरे अस्तित्व के प्रति प्रेम। तुम जानते हो कि क्या उचित है, तुम वो कर लोगे, फिर तुम ये नहीं कहोगे कि ये तो मुझे किसी ने बताया ही नहीं कि वो कबूतर पड़ा हुआ है घायल, उसके प्रति मेरी क्या ज़िम्मेदारी है, मैं कुछ नहीं कर सकता। खुद जान जाओगे कि इस वक़्त मुझे क्या करना चाहिए।
प्रेम कोई कर्तव्य नहीं होता। तुम्हारी पहली ज़िम्मेदारी है, जगना, बोध और जब वो पहली ज़िम्मेदारी पूरी होती है तो उसके बाद दुनिया के प्रति समस्त ज़िम्मेदारियाँ अपने आप पूरी होने लगती हैं और उन ज़िम्मेदारियों का नाम है प्रेम।
आचार्य प्रशांत से निजी रूप से मिलने व जुड़ने हेतु यहाँ क्लिक करें।
आचार्य जी से और निकटता के इच्छुक हैं? प्रतिदिन उनके जीवन और कार्य की सजीव झलकें और खबरें पाने के लिए : पैट्रन बनें !