ख़ुद को क्या समझते हो? दुनिया को कितना जानते हो?

ख़ुद को क्या समझते हो? दुनिया को कितना जानते हो?

प्रश्नकर्ता: क्या ऐसा जीवन सम्भव है जिसमें मान्यताओं का कोई भी स्थान ना हो? ना अपने बारे में कोई मान्यता और ना ही दूसरों के बारे में। मैं छवियों में जीती हूँ। ऐसा लगता है जैसे जीवन जीने के लिए, लोगों को परखने के लिए मेरे पास आँखें नहीं हैं, बक्से हैं और मैं इन बक्सों में सबकुछ फिट (समायोजित) करती रहती हूँ। समझाएँ।

आचार्य प्रशांत: मान्यताएँ तो रखनी पड़ेंगी। ये बड़ी क़िताबी और निरि सैद्धांतिक बात है कि सब मान्यताओं का त्याग कर दो, सब मान्यताओं से मुक्त हो जाओ।

आदमी का पारिभाषिक गुण है उसका ज्ञान। वो मानता है। ये आदमी का, मैंने कहा, पारिभाषिक-चारित्रिक गुण है। उसकी बड़ी केंद्रीय पहचान है कि वो मानता है। मानता है माने? वो ज्ञान पर चलता है। अब वो ज्ञान हो किसी भी कोटि का सकता है — ऊँचा ज्ञान, नीचा ज्ञान, स्पष्ट ज्ञान, धुंधला ज्ञान। पर कोई आपको मनुष्य ऐसा नहीं मिलेगा जिसके पास ज्ञान ना हो, और जिसका अपने ज्ञान पर विश्वास ना हो, माने वो अपने ज्ञान पर चलता ना हो। हम सब अपने-अपने निजी, व्यक्तिगत ज्ञान पर ही चलते हैं।

ज्ञान माने ही मान्यता, ठीक है? जिस चीज़ को आपने मान लिया कि सच है, उसको हम कह देते हैं कि अब वो हमारे लिए सत्य के तौर पर मान्य हो गया। वही है ‘मान्यता’। जो चीज़ आपके लिए सत्य के समकक्ष मान्य हो गई उसको कह देते हैं ‘मान्यता’। मान्यता माने ज्ञान। हमारे पास कुछ ज्ञान होता है और ज्ञान सदा क्या कहता है? ‘फलानी चीज़ ऐसी है’। यही तो सत्य है न। हम क्या कह रहे हैं परोक्ष-रूप से? हम कह रहे हैं फलानी चीज़ का सच ऐसा है। यही ज्ञान है, ठीक है?

जब आप उदाहरण के लिए कहते हैं कि, “सामने दीवार है”, तो आप कह रहे हैं, “मुझे सचमुच पता है कि मेरे सामने दीवार है”। तो आपका ज्ञान हुआ न कि सामने मेरे दीवार है। लेकिन ये जो ज्ञान है आपका, इस ज्ञान के माध्यम से आप यही कह रहे हैं कि आपको सत्य पता है। कोई ये कहता है, “मेरा ज्ञान झूठा है”? नहीं न। अगर ज्ञान झूठा ही साबित हो जाए तो फिर वो ज्ञान तो त्याग दिया जाता है।

तो हम कह रहे हैं आदमी वो जीव है जो ज्ञान पर चलता है। यहाँ पर आदमी में और पशुओं में भेद है। पशुओं को ज्ञान इत्यादि पर नहीं चलना पड़ता, या ये कह लीजिए कि उनके पास ज्ञान अर्जित करने की कोई विशेष क्षमता नहीं होती। आप पशुओं को संस्कारित तो कर सकते हैं; उन्हें ज्ञानी नहीं बना सकते। इस बात को मैं और ज़्यादा नपे-तुले तरीके से कहूँ तो बात ये है कि जिसे हम संस्कार कहते हैं वो ज्ञान ही है। बस वो ज्ञान का बड़ा निचला प्रकार है। जो जिस रूप में संस्कारित हो गया, जिसके मन में जो संस्कार ड़ाल दिया गया, वो अपने भीतर बैठे संस्कार को सच ही तो समझता है न।

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

More from आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant