होश ही धर्म है
प्रश्नकर्ता: सर, धर्म क्या है?
आचार्य प्रशांत: देखो, कुछ बातें ऐसी होती हैं जो बहुत सरल होती हैं दुनिया में। लेकिन उनके चारों तरफ इतनी आवाज़ें भर दी गयी हैं, इन शब्द के चारों तरफ इतना प्रदूषण कर दिया गया है कि बात कहीं गड़बड़ हो जाती है। जैसे प्रेम! इसके चारों तरफ आवाज़ों का बहुत बड़ा वातावरण है। अब जैसे ही प्रेम का नाम आएगा, आपके दिमाग में हज़ार तरीके की छवियाँ उभरती हैं जबकी उन छवियों से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है जब मैं उच्चारित कर रहा हूँ “प्रे-म”। पर आपके दिमाग में ‘प्रे-म’ या ‘ध-र्म’ सुनते ही हज़ार तरीके की छवियाँ आती हैं।
मैंने कहा, ‘प्रेम’, और अगर आप लड़के हैं तो आपके दिमाग में कुछ बात आएगी। मैंने कहा, ‘धर्म’, और अगर आप हिन्दू हैं, तो आपके सर के पीछे एक ज़ोर का घंटा बजेगा।
मैंने कहा धर्म, आपने सुना घंटा! मैंने नहीं बजाया घंटा। अगर आप मुसलमान हैं, तो आपको अज़ान सुनाई देगी। मैंने कहा तो नहीं ऐसा। और जो ‘धर्म’ शब्द है, उसमें यह सब कुछ ठीक भी नहीं है कि धर्म बोला जाए तो उस से आपको एक प्रतिमा दिखाई दे या कुछ सुनाई दे। लेकिन यह सब कुछ सुनाई देने लग जाता है। बड़ी दिक्कत हो जाती है। मैं आपसे कुछ शब्द बोलूंगा और आप देखिये आपके मन में कितनी छवियाँ उभरती हैं।
‘अभिभावक’ — जितने लोग यहाँ बैठे हैं उतनी छवियाँ। शायद दोगुनी। और उतनी ही नहीं, उस से भी ज्यादा । क्योंकि एक छवि दूसरे को जन्म देती है, जुड़ी हैं एक दूसरे से।
‘देश’ — आयी ना बहुत सारी छवियाँ? देश सुनते ही आपने देश नहीं सुना। उस से सम्बंधित जितनी छवियाँ हैं, एक-एक करके सामने आ…