हृदय से जीना
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आचार्य प्रशांत: यदि प्राणी हृदय से संचालित है तो वो वास्तव में परम स्रोत से ही संचालित है; पर ये शर्त बड़ी है कि उसे हृदय से संचालित होना चाहिए। जब वह हृदय से संचालित होता है तो इन्द्रियाँ वैसी हो जाती हैं जैसी श्रीकृष्ण भगवद्गीता में कहते हैं, कि, ‘निर्मल इन्द्रिय’। फिर इन्द्रियाँ भी अपने उन विकारों को और सीमाओं को त्याग देती हैं जिनके कारण जीव भ्रम में पड़ा रहता है इंद्रियों पर चलकर के; फिर बाहर भी नाना प्रकार की वस्तुएँ, संसार, माया ये नहीं दिखाई देते, ठीक वही तत्व दिखाई देता है बाहर, जो भीतर बैठकर बाहर को देख रहा है। तो ये सत्य स्थिति है, ये आदर्श स्थिति है: जब द्रष्टा, दृश्य और जो देखने का करण या माध्यम है वो तीनों ही पूर्णतया शुद्ध हैं, और जब पूर्णतया शुद्ध हैं तो एक हैं।
इन बातों की शिष्य के लिए क्या उपयोगिता है? उपयोगिता ढूँढनी है तो पुराने सूत्र पर वापस आइए; यही मत देखिए कि क्या कहा गया है, ये देखिए कि किसको अनुपस्थित कर दिया गया है कहने से, किसकी बात बिलकुल नहीं कही गई है। देखने वाला भी वह, देखने का माध्यम भी वह, और देखा जा रहा दृश्य भी वह; करने वाला भी वह, करने का उपकरण भी वह, और कर्म भी वह- इन बातों में क्या है जो अनुपस्थित है? इनमें हम अनुपस्थित हैं; आप कहीं नहीं हैं।
आप अपने-आपको कर्ता समझते रहे ये आपकी भूल है; ऐसा आपका आभास है या मान्यता है, पर सत्य नहीं है। सत्य में यदि जिएँगे आप, तो आप नहीं जिएँगे, फिर सत्य जिएगा, आप नहीं होंगे; आपको अगर होना है तो आपको असत्य ही होना पड़ेगा। और जब तक आप हैं, अपनी निजी सत्ता लिए हुए और निजी व्यक्तित्व लिए हुए, तो आपके साथ वो सब सीमाएँ और बंधन चलते ही रहेंगे जो आपके दुःख के कारण हैं।
उस परम तत्व के विषय में तो कह दिया, “वह सब ओर मुख, सिर और ग्रीवा वाला है,” अर्थात् वो व्यक्तिगत सीमाओं से बँधा हुआ नहीं है। हमारी सीमाएँ देखिए, हमारी विवशताएँ देखिए; जितनी हमसे गलतियाँ होती हैं, जितने भ्रमों में हम पड़ जाते हैं, वो इसीलिए तो हैं न, कि न पूरा जानते हैं और न पूरा जान सकते हैं? पूर्ण को जानने की सामर्थ्य ही नहीं है मन में; सब कुछ याद नहीं रख सकते, सब कुछ सोच नहीं सकते, विचार का पात्र बहुत छोटा होता है। मजबूर रहते हैं कि आँखें जितना दिखाएँगी, कान जितना सुनेंगे और ज्ञान जितना होगा उसीके अनुसार जीवन चलाना होगा, और निर्णय लेना होगा।
वो है सब ओर सिर-मुख-ग्रीवा वाला; हम नहीं हैं। हम नहीं हैं तो हम एक ओर को मुख रखते हैं। एक ओर जब भी मुख रखेंगे तो अनेकों ओर से विमुख हो जाएँगे, और जिधर भी नहीं देख रहे उधर से तो चूक ही जाएँगे न? फिर ये निर्णय भी कि किधर को मुख रखना है ये आता है मन से; जिसकी बुद्धि भी चौतरफा प्रसार वाली नहीं है, उसकी बुद्धि भी सीमित है, उसी सीमित बुद्धि से वो ये निर्णय करता है कि…