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हिन्दू धर्म में जातिवाद का ज़िम्मेवार कौन?

का जाति:।
जातिरिति च।
न चर्मणो न रक्तस्य न मांसस्य न चास्तिनः।
न जातिरात्मनो जातिवर्णाधरप्रकल्पिता।।

अनुवाद: शरीर (त्वचा, रक्त, हड्डी आदि) की कोई जाति नहीं होती। आत्मा की भी कोई जाति नहीं होती। जाति तो व्यवहार में प्रयुक्त कल्पना मात्र है।

~ निरालंब उपनिषद (श्लोक क्रमांक १०)

आचार्य प्रशांत: आज जो हम श्लोक लेने जा रहे हैं आरंभ में ही उसका बड़ा समसामयिक महत्व है। वास्तव में ये श्लोक जो बात कह रहा है उसको साफ़-साफ़ समझ लिया जाए तो पूरे विश्व की, विशेषकर भारत की सामाजिक, राजनैतिक स्तिथि बिलकुल पलट जाएगी, सुधर जाएगी। बहुत सारी मान्यताएँ, जो आम जनमानस में ही नहीं बल्कि बुद्धिजीवियों में भी प्रचलित हैं उनका पूरी तरह से खंडन हो जाएगा।

इतने श्लोक हैं उपनिषद में और वास्तव में श्लोक क्रमांक दस, जिसपर अभी हम वार्ता करेंगे, उससे कहीं गहरे, कहीं चमत्कारिक, कहीं ज़्यादा कालातीत भी दूसरे श्लोक प्रचुरता से मौजूद हैं, उपलब्ध हैं लेकिन इस श्लोक की सम्प्रति जो प्रासंगिकता है वो बेमेल है। तो रोचक रहेगा, आरंभ करते हैं।

ऋषि कहते हैं जाति चर्म, रक्त, माँस, अस्थियों और आत्मा की नहीं होती। जाति की प्रकल्पना तो मात्र व्यवहार निमित्त है।

ऋषि कह रहे हैं कि ना तो शरीर की जाति है, ना आत्मा की जाति है। शरीर प्रकृति है पूरे तरीक़े से। खून और खून में क्या अंतर होता है? कोशिका और कोशिका में क्या अंतर…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant
आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

Written by आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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