हिंसा क्या है? उचित कर्म और अहंकार को कैसे जानें?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी हिंसा की जो बात हो रही थी अभी उसके बारे में एक प्रश्न था कि कभी ऐसी स्थिति बन जाए कि आत्मरक्षा के लिए या किसी निर्दोष की रक्षा के लिए हिंसा करनी पड़ जाए क्या हो जाए अचानक से तो, वह हिंसा होगी या नहीं?
आचार्य प्रशांत नहीं होगी। हिंसा, हिंसा तभी होगी जब वह स्वार्थवश की जाए। धर्म युद्ध में अगर अर्जुन बाण चला रहा है तो यह हिंसा नहीं है। अगर अपने छुद्र स्वार्थों के लिए तुम दूसरों का नुकसान करने के लिए तैयार हो, सिर्फ तब वो हिंसा, हिंसा कहलाती है। जब तुम कहते हो- अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए मैं दूसरे के तन, मन, धन किसी की हानि करने को तैयार हूँ, तो ये हुई हिंसा। मैं बढ़ जाऊँ और दूसरा घट जाए, यह हिंसा कहलाती है। हिंसा माने दो बात- पहला, तुमने अपने और दूसरे को अलग-अलग देखा, तुम्हें यह समझ में ही नहीं आया, कल्याण सबका एक साथ होता है। तुमने कहा मैं बढ़ जाऊँ, वह घट जाए ये पहली बात। और दूसरी बात तुमने दूसरे को घटाने की पूरी कोशिश भी कर डाली। तो हिंसा में दो बातें आती हैं- पहला, यह झूठा भेद, परायापन और दूसरा, दूसरे को घटाने की कोशिश। दूसरे को स्वयं से अलग जानना और दूसरे के अहित-अमंगल की कोशिश करना।
यही कहलाती है हिंसा- दूसरे को स्वयं से अलग जानना और फिर दूसरे का अहित करने की कोशिश करना।
इसीलिए धर्मार्थ भी जब कर्म किया जाता है तो उसमें पहले दूसरे को समझाया ही जाता है। हर तरीके से यह कोशिश की जाती है कि उसकी हानि न हो और उसको प्रकाश दिख जाए पर जब स्थिति ऐसी आ जाती है कि वह समझने को तैयार ही नहीं और…