हार मंज़ूर है, हौसले का टूटना नहीं

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जैसा कि आपने बताया कि विचार करो और विरोध करो। जो कुछ भी चेतना के तल पर नीचा है उसका विरोध करो लेकिन विरोध करने पर भी, जैसे सौ बार विरोध करना है तो उसमें जब नब्बे बार हार मिलने लगती है तो फिर इक्यानवे बार कोशिश करने का मन नहीं होता है तो इस स्थिति में क्या करना चाहिए?

आचार्य प्रशांत: नहीं, विरोध करना जीत है! हार कैसे मिल गई?

प्र: जैसे विचार किया कि कोई एक काम है जो नहीं करना है लेकिन फिर भी वो हो जाए।

आचार्य: ये जीत है। हार तब है जब अगली बार विचार नहीं किया। यहाँ हार-जीत की परिभाषा बहुत स्पष्ट होनी चाहिए। हार तब है जब ऐसे हार गए कि अगली बार उस काम को सही ही मान लिया। तुमने विरोध किया न? तुममें जितनी जान है, परिस्थितियों के चलते, अपने अतीत के चलते, तुमने अपनी जो हालत कर ली है उस हालत में तुम्हारी जितनी जान है उतनी जान लगाकर तुम विरोध करो, अगर ईमानदारी से करा है तो। उसके बाद भी हार जाओ तो इसको हार मत मान लेना, ये जीत है।

हार कब है? जब अगली बार विरोध ही न करो। तुम्हारा काम है बार-बार, बार-बार विरोध करते जाना और ये उम्मीद तुम्हारी हार बन जाएगी कि “मैंने पाँच बार विरोध किया लेकिन मैं जीत तो पाती ही नहीं।”

तुम्हें हक़ क्या है आखिरी जीत माँगने का? तुम कौन हो? तुम्हारा काम है एक हार से दूसरी हार तक की यात्रा करना — ये जीत है। हार कब है? जब यात्रा रुक जाए। हार कब है? जब हारना ही छोड़ दो, हार के डर से।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org