हारना बुरा क्यों लगता है?

पिछली शताब्दी की कहानी है, कॉलोनाईज़ेशन’ जानते हो न? यूरोपियन देश थे, तो ये एशिया, अफ्रीका हर जगह अपने साम्राज्य को फैला रहे थे, विस्तार कर रहे थे।

तो सौ साल से ज़्यादा पुरानी ये कहानी है- एक ब्रिटिश सेनापति था, जीतता हुआ आगे बढ़ा ही जा रहा था। एक गाँव उसके विस्तार क्षेत्र के बीच में पड़ रहा था, बाधा बन रहा था; छोटा सा गाँव था। सेनापति ने कहा कि — “इसका क्या है, इसको तो पल भर में रौंध दूँगा, आगे बढ़ जाऊँगा।” उसने अपने सैनिक भेजे, सैनिक हैरान रह गए। ज़रा सा गाँव था, पर उसके लोगों ने बहुत डट कर संघर्ष किया और उनकी जो नेत्री थी, वो अभी बहुत कम उम्र की एक लड़की थी। सेनापति की फ़ौज हैरान पड़ गई; बचे-कुचे सैनिक वापस आए, उन्होंने बताया ऐसा हो गया। उन्होंने कहा कि — “इतना आसान नहीं है जितना हमें लगा था। वो लोग उस जगह को जानते हैं, उससे परिचित हैं, जंगली इलाका है, वो वार करके छुप जाते हैं और सबसे बड़ी बात ये है कि वो संकल्प बद्ध हैं; उन्होंने तय कर रखा है कि गुलामी में नहीं जीएँगे।”

सेनापति ने कई बार कोशिश की, और हर बार नतीजा एक ही निकला। बारह-चौदह दफ़े कोशिश करने के बाद, अंततः उसने और बड़ी सेना मँगवाई; सैनिक इतने ज़्यादा कर दिए कि अब कोई तुलना ही नहीं रही। अनुपात एक और सौ का हो गया; हर ग्रामीण पर सौ अंग्रेज सैनिक। तो बारह-चौदह बार हारने के बाद अंततः ब्रिटिश फ़ौज जीती।

उस लड़की को, उनकी नेत्री को, पकड़ के लाया गया ब्रिटिश सेनापति के सामने। सेनापति साहसी आदमी था, वो इसी से सिद्ध होता है कि वो पीछे नहीं हटा था। उसने कहा था कि — “मैं भी लगा रहूँगा, पूरा एशिया जीतना है मुझे।” लड़की उसके सामने लाई गयी; सेनापति गर्व के साथ एक ऊँची जगह पर बैठा — सिंघासन समान। नीचे वो लड़की बेड़ियों में खड़ी हुई है; हारी हुई और घायल। साल दो साल से लगातार लड़े ही जा रही थी; स्वास्थ गिरा हुआ था, ज़ख्मो से खून रिस रहा था, हाथ-पाँव सब बंधन में थे और सेनापति तन करके ऊपर अपने सैनिकों से घिरा हुआ बैठा हुआ था। वो सामने आई, सेनापति ने उससे कहा — “आखिरकार, तू हार तो गई ही!”। वो लड़की ज़ोर से खिलखिला के हँसी और कहा — “हम चौदह बार नहीं हारे, लेकिन इस बार हार गए।” वो अपनी सेना लेके वापस मुड़ गया।

सेनापति उससे कह रहा है — “आखिरकार, तू हार गई”, और वो हँस रही है। वो कह रही है — “हारा कौन? हम सदा जीते हुए हैं। हम जीतने में भी जीतते है; हम हारने में भी जीतते हैं क्यूँकि युद्ध के परिणाम पर निर्भर ही नहीं है हमारा जीतना; हमारा जीतना हमारे भीतर है।”

जीना उसका जीना है, जो तब तो जीता ही, जब वो जीता; वो तब भी जीता, जब वो हारा।

हम सोचते हैं कि जब हम जीते, हम सिर्फ तभी जीते। लेकिन, कुछ ऐसे भी हुए हैं जो हारने में भी जीतते रहे हैं। जिनका जीतना अटल रहा है; उस पर कोई अंतर नहीं पड़ सकता स्थितियों से, परिणामों से, और घटनाओं से उनकी आंतरिक जीत प्रभावित होती ही नहीं है; वो अक्षुण्ण रहती है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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