हम व्यर्थ फँसे हुए हैं
मेरा जीवन है, मेरी अपनी भी कोई स्वेच्छा है, अपनी दिशा, अपनी गति मैं खुद निर्धारित करूँगी।
तनाव सिर्फ उसको होता है जो रस्सी की तरह बेजान और मुर्दा होता है। जो जगा हुआ होगा वो इस सब को झिटक देगा। कोई मेरा हाथ खींच रहा है तो कोई मेरा पाँव खींच रहा है, तो कोई मेरी चुटिया खींच रहा है, तुम्हारे होंगे अपने-अपने इरादे, अपने-अपने एजेंडा, अपनी-अपनी दिशाएँ, कोई उधर खींच लेना चाहता है, तो कोई इधर खींच लेना चाहता है, पर मेरा जीवन, मेरा जीवन है दूर हटो।
ज़्यादा बड़ी बात है आँखें खोलना। ये देखना की हम परेशान हो रहे हैं, हम व्यर्थ फँसे हुए हैं।
डर को छोड़ो ये धारणा छोड़ो, तुम्हें अब सहारे की जरूरत है। ये धारणा छोड़ो की कोई और आये और तुम्हें दिशा दिखाए। जो भी आएगा अपने अनुरूप के उधर को खींचेगा।
थोड़ा साहस जुटाओ, थोड़ा श्रद्धा रखो।
कोई नुकसान नहीं हो जाएगा तुम्हारा। अब मजबूत हो, बड़े हो अब चलो अपने कदमों पर, शुरू में थोड़ी ठोकर लगेगी, गिरोगे, चोट लगेगी पर मर नहीं जाओगे। दो-चार बार गिर लो, घुटनें छिल जाएँगे, खून बहेगा, ठीक है, क्या हो गया? बचपन में नहीं गिरते थे क्या?
तो दो–चार बार फिर से गिर लो, पर रस्सी की तरह मत रहो, बेज़ान, मुर्दा, गुलाम।
आचार्य प्रशांत