हम लाख छुपाएँ प्यार मगर
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आचार्य प्रशांत: उपनिषदों के जो उच्चत्तम श्लोक हैं वो कहते हैं कि वो अमृत से भी परे है। वो तो भूल में हैं ही जो कहते हैं कि साकार है, वो भी भ्रम में हैं जो कहते हैं निराकार है। वही उपनिषद् फिर ये भी कहते हैं कि द्वैत में जीने वाले तो पगले हैं ही, जो अद्वैत को पड़के हुए हैं वो भी गलतफहमी में हैं।
दो ही शब्द हैं जीवन में भी याद रखने लायक: भिन्न और परे। और इन दोनों में भी अगर एक को याद रखना हो तो परे। बियॉन्ड (परे) बियॉन्ड एंड बियॉन्ड। इसी परे होने को नेति-नेति भी कहते हैं। “नहीं, ये भी नहीं इससे परे, नहीं ये भी नहीं इससे भी परे, नहीं ये भी नहीं इससे भी परे।” तुम जो ऊँचे-से-ऊँचा सोच सकते हो उससे भी परे। अरे जो तुम साधारणतया सोचते रहते हो उससे तो परे है ही, जो तुम असाधारण सोच ले जाते हो उससे भी परे है। क्योंकि जो कुछ परे नहीं है, वही तुम्हें फिर सत्य लगने लग जाएगा, उसी से चिपक जाओगे और वहीं पर तुम्हारा कष्ट शुरू हो जाएगा। ये ही याद रखना है बस ज़िन्दगी में, परे।
एक समय पर मैं एकदम जैसे गाया ही करता था, पाँच-सात साल पहले की बात है। ‘गते गते परागते।’ कि सिर्फ गमन ही काफ़ी नहीं है, गमन से आगे का गमन और फिर उससे भी आगे का। तुम जो कुछ भी सोच सकते हो उससे भी आगे का।
तो चेतना की तीन अवस्थाएँ बताएँगे फिर कहेंगे तुरिया, यानी तीन से आगे की। और फिर कहेंगे लो, हमने चौथी बताई, तुरीय, लोगों ने उसके बारे में भी कुछ कहानी कर ली। तो फिर कहते हैं ‘तुरीयातीत, तुरीय से भी आगे।’ अरे तुरीय से आगे कुछ कैसे हो सकता है? पर कहना पड़ता है, तुरीयातीत।
सच का तकाज़ा तो ये है कि सत्य को भी सत्यतीत कहना चाहिए, कि जो सत्य है वो भी सत्य से आगे का है। क्योंकि तुमने सत्य भी कह दिया तो उसको भी हम पकड़ कर बैठ जाएँगे, उसकी कोई छवि बना लेंगे, कुछ उसके बारे में किस्से कहानी कल्पना कर लेंगे, तो परे।
जो कुछ भी लगा कि समझ में आ गया है, यही कहो कि “नहीं, सच्चाई इससे परे ही होगी। ये जो कुछ मुझे समझ आया है ये तो ठीक हो ही नहीं सकता, क्यों? क्योंकि मुझे समझ में आ गया भाई। अगर ये चीज़ सही होती तो मुझे समझ में कैसे आ जाती?” (अपने हाथ को बताते हुए; अर्थात शरीर) ये मैं हूँ, कोई भी ढंग की चीज़ मुझे समझ आ सकती है? तो अगर मुझे समझ आ गयी है तो वो चीज़ ही गड़बड़ होगी।
तो जो कुछ भी समझ में आया है, उसके बारे में विनम्रता रखकर कहिए ये सच्चाई तो हो नहीं सकती। ये सच्चाई नहीं हो सकती क्योंकि ये चीज़ समझ आ गई है। समझ नहीं, ‘मुझे’ समझ आ गई है। अह्म की पकड़ में जो आ गया, वो असली कैसे हो सकता है? तो बस बोलिए, परे। बियॉन्ड, बियॉन्ड*। इसी *बेयॉन्डनेस का नाम स्पिरिचुअलिटी (अध्यात्म) है।