हम पूर्ण से अलग हुए ही क्यों?

प्रश्नकर्ता: मैं आज अमृतबिंदु उपनिषद पढ़ रहा था, जो आज भेजा गया था। उसमें लिखा है-

“विषय-भोगों के संकल्प से रहित होने पर ही इस मन का विलय होता है। अतः मुक्ति की इच्छा रखने वाला साधक अपने मन को सदा ही विषयों से दूर रखे। इसके अनन्तर जब मन से विषयों की आसक्ति निकल जाती है तथा वह हृदय में स्थिर होकर उन्मनी भाव को प्राप्त हो जाता है, तब वह उस परमपद को प्राप्त कर लेता है”।

“मन के दो प्रकार कहे गए हैं, शुद्ध मन और अशुद्ध मन। जिसमें इच्छाओं, कामनाओं के संकल्प उत्पन्न होते हैं, वह अशुद्ध मन है और जिसमें इन समस्त इच्छाओं का सर्वथा अभाव हो गया है, वही शुद्ध मन है”।

एक बार आपके विडियो में भी सुना था कि — हम जो अहम हैं, ये अपूर्ण वृत्ती है, अपूर्ण है तो ये हर किसी के साथ जुड़ जाना चाहती है। एक एचआईडीपी (HIDP) में भी था की वो इतनी छोटी सी है की वो छोटी-से-छोटी चीज़ से भी जुड़ जाती है, आपका यह वचन है। और यह निकली पूर्ण में से है, ये भी आपने ही बताया है पर आप यह भी बोल रहे हैं कि यह चेतना है, फिर यह अलग क्यूँ हुई है? यह सब सिस्टम (व्यवस्था) क्यों चल रहा है?

आचार्य प्रशांत: उसी से पूछिए जिसने चलाया है। जल्दी से जल्दी कोशिश करिए उस तक पहुँचने की।

प्र: एक सवाल ओर भी है- मैं जैसे गुरुओं की वाणी पढ़ता हूँ, शबद पढ़ता हूँ उनके, सब शब्दों में दो ही चीजें हैं — एक तो उसके गुणों की चर्चा है और बार-बार वो यही बोलते हैं ‘गुण गांवा दिन रात’ नानक चाहो ए-ही-हो’ और एक फरीद जी का भी शबद है — ‘अजे सोरभ न बुझयों, देख बंदे के भाग’।…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org