हम डरते क्यों हैं?

डर करने में नहीं, डर करने के विषय में सोचने में है। जब कर्म हो रहा होता है, जब आप गहराई से करने में ही उतरे होते हैं, तब डर महसूस नहीं हो रहा होता है।

हम में से ज़्यादातर लोगों को भ्रम यही है कि मुझे ये काम करने में डर लगता है। “मुझे बोलने में डर लगता है, मुझे कहीं जाने में डर लगता है, मुझे कुछ लिखने से डर लगता है।”

याद रखिएगा, डर ना बोलने में है, ना कहीं जाने में, और ना ही लिखने में। डर है उस विषय के बारे में सोचने में।

तो पहली बात — डर सिर्फ एक विचार है, उसकी कोई वास्तविकता नहीं है। डर एक विचार है और जितना इस विचार को गहरा उतरने देंगे, डर उतना ही लगेगा। सब लोग लिख लें इस बात को — “डर सिर्फ एक विचार है”।

जो भी अपनी छवि को लेकर दूसरों पर आश्रित रहेगा, वही डरा रहेगा कि वो छवि कहीं नष्ट ना हो जाए। अर्थ स्पष्ट है? जो भी भयमुक्त होना चाहता हो, उसे दूसरों पर अवलंबन छोड़ना होगा, उसे अपने पाँव पर खड़े होना सीखना होगा, उसे अपनी दृष्टि से स्वयं को देखना सीखना होगा और अपनी चेतना से समझना-सीखना होगा।

इसका अर्थ यह है कि दूसरे अगर मुझे कह दें कि, “तुम बहुत बढ़िया हो, बहुत बहादुर हो!” तो मैं जल्दी से खुश नहीं हो जाऊँगा। “मैं आश्रित नहीं हूँ तुम पर कि तुमने मुझे बहादुर होने का प्रमाण दे दिया और मैं मान ही लूँ कि मैं बहादुर हूँ। अगर तुम्हारे कहने से मैं ये मान लेता हूँ कि मैं बहादुर हूँ, तो तुम्हारे कहने पर थोड़ी देर बाद मुझे ये भी मानना पड़ेगा कि मैं कायर हूँ, डरपोक हूँ। अब मैं तुम पर निर्भर हो गया हूँ, ग़ुलाम बन गया हूँ…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org