हमें क्या पता हम क्या चाहते हैं
प्रश्नकर्ता: हमारे मन का स्तर उठता क्यों नहीं? हम बेहतर होना चाहते हैं, पर चाहते हुए भी बेहतर हो क्यों नहीं पाते?
आचार्य प्रशांत: देखिए जो ये शब्द होता है न 'चाहना', ये थोड़ा भ्रामक शब्द है। हम साफ़-साफ़ जानते नहीं हैं कि हम चाहते क्या हैं। आप पूछेंगे तो ऊपर-ऊपर तो कोई भी नहीं बोलेगा आपसे कि वो बंधन चाहता है, क़ैद चाहता है, दुःख चाहता है, कष्ट चाहता है, कोई नहीं बोलेगा। पर एक वो चीज़ है जिसको हम कहते हैं कि हम चाहते हैं। और दूसरी वो चीज़ है जिसको हम चोरी-छुपे चाहते हैं, बेहोशी में चाहते हैं।
समझिएगा बात को। एक वो चीज़ है जिसको हम होश में चाहते हैं, एक वो चीज़ है जिसको हम अपनी बेहोशी में चाहते हैं। उदाहरण दूँ? आप रात में ग्यारह बजे सोते हैं, सुबह पाँच बजे का अलार्म लगाते हैं। आपने अपने होश में क्या चाहा है? सुबह उठना। सुबह पाँच बजे अलार्म बजता है, आप ही थे न जिसने अलार्म सेट करा था? जब बजता है अलार्म तो आप ही होते हैं जो हाथ मार कर उसे चुप करा देते हैं। आप ही हैं जो अभी सोते रहना चाहते हैं।
ये दोनों चाहतों में इतना अंतर कैसे आ गया? ग्यारह बजे की चाहत कौन सी थी? होश की चाहत। और सुबह पाँच बजे की चाहत कौन सी है? बेहोशी की चाहत। और ये दोनों चाहतें एक साथ चलती हैं। बात बस इतनी सी है कि जब आप होश में कुछ चाह रहे होते हैं तो आपका होश इतना गहरा नहीं होता कि पता चले कि अंदर कोई बेहोश भी बैठा है और उसने कुछ विपरीत चाह रखा है। तो आप पूरे तरीके से निश्चिंत हो जाते हैं, निश्चिंत हो जाते हैं कि, "मैं तो फलानी चीज़ ही चाहता हूँ।" आप ख़ुद को ये भरोसा दिला लेंगे। आप दूसरे को भी आश्वस्त कर देंगे कि, "नहीं साहब, मैंने पूरा इरादा बना लिया है कि सुबह पाँच बजे तो मुझे उठना ही है।"