हमारी मर्ज़ी, हमारी पसंद — यही हमारे भगवान
अहंकार दो दिशाओं में बढ़ता है। एक दिशा होती है उसकी पसंद की और एक दिशा होती है उसकी मुक्ति की। और दोनों ही दिशा में वो बढ़ने में आतुर रहता है।
एक होती है अहंकार की मुक्ति और एक होती है अहंकार से मुक्ति।
ज़िन्दगी में तुम्हें दो तरह के लोग आकर्षित करेंगे, दो के अलावा तीसरा कोई हो ही नहीं सकता। एक वो जो तुम्हारे अहंकार को बहुत बढ़ाते हों, तुम्हारी जैसी वृतियाँ हैं, जैसे संस्कार हैं, उसके अनुसार लोग तुम्हें आकर्षित करते हैं। और साथ ही साथ तुम्हें वो लोग आकर्षित करते हैं जो इस धरती के फूल रहे हैं। तुम्हें रामकृष्ण, भगत सिंह आकर्षित करते हैं।
इनमें से आदर्श किसको बनाना है?
आदर्श उनको बनाना है जिसकी ओर अहंकार इसलिए बढ़ता हो क्योंकि उससे मुक्ति मिलेगी, पसंद नहीं। उसकी ओर नहीं बढ़ना है जो तुम्हें पसंद हो, उसकी ओर बढ़ना है जिससे तुम्हें मुक्ति मिलती हो, जो तुम्हारे बंधनों को काटता हो, उसको आदर्श बनाना है।
जिन्हें मुक्ति चाहिए उन्हें ज्ञानियों को और संतों को और पैगम्बरों को ही अपना आदर्श बनाना पड़ेगा।
इस युग में एक ही भगवान है और उस भगवान का नाम है “मेरी मर्ज़ी!” मुझे जिस चीज़ में मज़ा आता है।
धर्म अभी एक ही बचा है ‘मेरी मर्ज़ी’ और हर बच्चे को इसी के लिए दीक्षित किया जा रहा है। स्कूल, कॉलेज, टीवी, मीडिया, परिवार सब उसे यही सिखा रहे हैं क्योंकि हमें इतनी सी बात समझ नहीं आ रही कि हमारी मर्ज़ी हमारी होती ही नहीं, हमें पसंद में ढ़ाला जाता है। हमें पसंद में संस्कारित किया जाता है, कुछ पसंद होती है हमारे शरीर की, बाकी हमारे मानसिक संस्कारों की।
पसंद घातक है और हमें शिक्षा दी जा रही है कि पसंद पर ही चलो जो, तुम्हें पसंद हो वही करो।
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