हमारी उम्मीदें क्यों कभी पूरी नहीं होती?

आपकी उम्मीदें कभी पूरी नहीं होंगी। संसार से हमारी जो भी उम्मीदें हैं, वो अंततः यही उम्मीद है कि हम तर जाएँगे। हमें लगता है कि हमें चरमसुख मिल जाएगा चीज़ों से। वो हो नहीं सकता, पर अभिलाषा हमारी यही है कि हम ‘परम’ को, पदार्थ के माध्यम से पा लें।

आप नया मकान, नई कार जो खरीदते हो, आप कार नहीं खरीदते हो, आप मोक्ष खरीदना चाहते हो। ये जो इतना उपभोक्तावाद है, तुम्हें क्या लगता है, तुम नई शर्ट, नई बाइक खरीदते हो? तुम उसके माध्यम से मुक्ति खरीदना चाहते हो। माया के माध्यम से हरि को नहीं पाया जा सकता, उसको तो सीधे ही पाना पड़ेगा। सीधा रास्ता ही काम आएगा।

आप जब प्रेम करते हो, तो आपको पत्नी नहीं चाहिए होती है, हर प्रेमी ने कभी किसी और को प्रेम नहीं किया है, ‘उसी’ को प्रेम किया है। चाहिए उसको ‘वही’ है, और इसीलिए हर प्रेम असफल हो जाता है।

क्योंकि आपकी जो इच्छा है, वो कभी पूरी हो ही नहीं सकती। आपको चाहिए ‘परम’, वो कभी परम का विकल्प नहीं बन सकती है ना। पुरुष स्त्री में परम को तलाशता है, स्त्री पुरुष में परम को तलाशती है, वो कभी मिलेगा नहीं, तो इसीलिए आपके हाथ सिर्फ़ धूल लगती है। कुछ ही समय बाद आप बड़े हताश हो जाते हो। आप कहते हो, “गड़बड़ हो गई, चूक हो गई,” पर आँखें तब भी नहीं खुलतीं। तब भी आप ये नहीं कहते कि, “परम को सीधे ही पाना पड़ेगा, माया के माध्यम से नहीं पा सकते।”

तब आप कहते हो, “अभी चूक हो गई, कोई बात नहीं, उम्मीद बाकी है। अब मैं ज़रा दूसरी औरत पर कोशिश करके देख लेता हूँ। मेरी उम्मीद ठीक थी, ये औरत गलत निकली, मैंने औरत गलत पकड़ ली।” अरे तुम कोई भी औरत पकड़ो, उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। तुम एक नहीं, पाँच शादियाँ कर लो, हर शादी में तुम्हें निराशा ही मिलनी है, क्योंकि तुम्हारी उम्मीद ही मूलतः गलत है।

इसीलिए इच्छा का कोई अंत नहीं होता। बात समझ में आ रही है कि इच्छा का अंत क्यों नहीं होता? क्योंकि इच्छा जिसको तलाश रही है, वो कभी इच्छा के माध्यम से मिल ही नहीं सकता। हर इच्छा उसी ‘परम’ को तलाश रही है, और वो इच्छा के माध्यम से मिलेगा नहीं। इच्छा कहती है, “मुझमें कोई अपूर्णता है,” और परम उनको कभी मिलता ही नहीं जो कहते हैं, “मैं अपूर्ण हूँ।”

आप ये शॉपिंग मॉल में जिन लोगों को देखते हैं, ये लोग कौन हैं? ये सब भक्त हैं। ये परम को तलाश रहे हैं माइक्रोवेव ओवन में। ये अपनी तरफ़ से शॉपिंग मॉल नहीं आए हैं, ये मंदिर आए हैं। वहाँ आप जो भी सुन रहे हो, उसको आप उनका घंटा-घड़ियाल ही समझियेगा। वो सब वहाँ देवी-देवताओं को पूज रहे हैं। जितने वहाँ पदार्थ रखे हों, या कपड़े रखे हों, चाहे जो भी रखा हो, वो उनके माध्यम से परमसुख की तलाश में हैं कि “हमें परमसुख मिल जाएगा, अगर हम क्या…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

More from आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant