हमसे ज़्यादा शक्तिशाली कौन!
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, हमारा मन शरीर से ज़्यादा बलशाली है। और आत्मा के विषय में गुरुजनों से सुना है कि मन से भी ज़्यादा बलशाली है। ऐसा क्यों होता है कि हम भूल-चूक करते हैं और क्या इसका मतलब यह हुआ कि भूलना जो कि मन के तल पर होता है वह अंततः सत्य से भी ज़्यादा शक्तिशाली है?
आचार्य प्रशांत: हाँ बिलकुल, सत्य को शक्तिशाली कहना कोई बहुत सार्थक बात नहीं है, ना ही कोई बहुत उपयोगी बात है। तात्विक दृष्टि से सत्य ना शक्त है ना अशक्त है। इसीलिए भारत ने शिव और शक्ति की अवधारणा रखी। कहा — शिव, शिव हैं। उनको शक्तिमान बोलना या शक्तिशाली बोलना उचित ही नहीं है। उनका शक्ति के आयाम पर अस्तित्व ही नहीं है। शिव अलग हैं, शक्ति अलग हैं। हाँ, उन दोनों के मध्य एक सुंदर रिश्ता ज़रूर है। उन दोनों के मध्य एक सुंदर रिश्ता रहे तो जीवन शिवमय हो जाता है। पर शिव स्वयं शक्तिशाली नहीं हैं। इसका मतलब ये नहीं कि दुर्बल हैं। वो किसी ऐसे आयाम पर हैं जो शक्ति से ऊँचा है।
तो फिर प्रश्न ये उठता है कि शक्तिशाली कौन है? जहाँ तक हमारा संबंध है हम ही शक्तिशाली हैं। हममें इतनी शक्ति है कि हम सत्य को, शिव को भी नकार सकते हैं, भूल सकते हैं। हम सच को भी परे रख सकते हैं। इसीलिए कल मैं कह रहा था कि उपनिषद् हमें बड़ी अनूठी बात कहते हैं। वह कहते हैं कि आत्मा ना ज्ञानी को मिलती है, ना भक्त को मिलती है, ना भाँति-भाँति के अनुष्ठान करने वाले को मिलती है, ना बड़े पुण्य करने वाले को मिलती है। आत्मा उसको मिलती है जो आत्मा का चयन करता है। इतनी ताक़त है हममें कि हम आत्मा का चयन कर सकते हैं। अभिप्राय समझते हैं? हम चाहे तो आत्मा का चयन ना भी करें। हम ऐसे धुरंधर बादशाह हैं। हमें ये छूट भी मिली हुई है कि हम सच को भी घोषित कर दें रिजेक्टेड, अचयनित।