हमसे अच्छा तो हमारा डॉगी है
आचार्य प्रशांत: बुद्धि अगर आध्यात्मिक नहीं है, अगर समर्पित नहीं है, तो उसे काट मार जाता है; वो चलती तो है, पर आत्मघाती दिशा में। ख़ूब चलती है बुद्धि, अपना ही नुकसान करने के लिए ख़ूब चलती है।
तुम मिलो किसी आदमी से जो अपना ही ख़ूब नुकसान किए जा रहा हो, उसके पास बहुत तर्क होंगे, तर्क पर तर्क होंगे। मैं तो हार गया; मूर्ख आदमी के तर्कों से जीता नहीं जा सकता। मैंने सिर झुका दिया। और बुद्धि जब उल्टी दिशा चलती है तो और तेज चलती है, जैसे देखा है कि गाड़ी अगर रिवर्स गियर में चलाओ तो उसका आर.पी.एम. और बढ़ जाता है, इंजन तेज-तेज घूमता है। बुद्धि भी जब उल्टी चलती है तो बहुत तेज चलती है।
सीधे आदमी की बुद्धि सीधी दिशा में दो ही चार बातें सोचेगी, कहेगी, इससे ज़्यादा की ज़रूरत नहीं। जिसकी बुद्धि उल्टी चल रही होगी, अरे बाप रे बाप! इतनी चलेगी, इतनी चलेगी कि पूछो मत। जब उल्टी चलेगी बुद्धि, तुम कहोगे, “ये है असली नीतिज्ञ, आज के चाणक्य। गुरु, क्या चाल चली है! क्या जुगाड़ बैठाया है! क्या सोचते हो!”
तो ऐतिहासिक पैमाने पर भी बता दिया, पचासों हज़ार साल का एक विस्तृत पैमाना लेकर भी बता दिया और बहुत समसामयिक उदाहरण देकर भी बता दिया, आदमी का खोपड़ा आदमी को बहुत भारी पड़ा है। सांकेतिक रूप से भी और लिटरली (सचमुच) भी, हमारा खोपड़ा हमे बहुत भारी पड़ा है। अब क्या करें?
मैं देखूँ कि चिकित्साशास्त्र ने मुझे क्या-क्या दे दिया और चिकित्साशास्त्र के सामने सिर झुका दूँ, या पहले पूछूँ कि जंगल की कोयल को तो किसी चिकित्सा की ज़रूरत ही नहीं पड़ती न? सर्वप्रथम तो मुझे ये बताओ कि…