हँसते हुए मुखौटे

आचार्य प्रशांत: एक आदमी था बड़ा भुल्लकड़। कोई एक चीज़ उसके साथ रहती थी, वो थी उसकी विस्मृतिशीलता। भूलता गया, भूलता गया, और एक दिन पाता है कि वो अपनी हँसी भी भूल गया; भूल ही गया कि हँसना कैसे है।

तो गया एक विशेषज्ञ के पास, कि, “हँसना भूल गया हूँ।“ उन्होंने कहा, “ये कौन-सी नई बात है? किसी किताब पर लिख लो कि रोज़ हँसना है। जब भी पढ़ोगे तो याद आ जाएगा कि रोज़ हँसना है।“ उसने कहा, “ठीक है।“

कुछ दिनों तक ठीक चलता रहा, वो अपने किताब के पन्ने पलटता तो उसे याद आ जाता कि हँसना है। लेकिन उसकी विस्मृतिशीलता गहराती ही जा रही थी। एक दिन ऐसा आया कि वो ये भी भूल गया कि किताब पढ़नी है। वो पुनः गया विशेषज्ञ के पास, उसने कहा, “अब ये स्थिति है कि किताब ही याद नहीं, तो अब हँसना कहाँ से याद रहेगा? बड़ी मुश्किल से तो आप तक पहुँचा हूँ, आपका पता भी याद नहीं था, पूछते-पाछते आया हूँ। अगली बार आ पाऊँगा या नहीं, पक्का नहीं है।“ उन्होंने कहा कि, “ऐसा करो, अपने कुछ दोस्तों पर ज़िम्मेदारी डाल दो, वो हँसने के लिए याद दिलाते रहेंगे। किताब तो मुर्दा होती है, वो तुम्हें याद दिलाने नहीं आएगी, दोस्त आ जाएँगे।“ उसने कहा, “ये आपने बढ़िया बात कही।“

तो दोस्तों के पास गया, उनसे अनुरोध किया कि आप लोग याद दिला दिया करिए। कुछ दिन तक ठीक भी चला, दोस्तों ने याद दिला दिया। एक दिन वो फिर मुँह लटकाए विशेषज्ञ के दरवाज़े पर खड़ा था। विशेषज्ञ ने कहा, “अब क्या हो गया?” उसने कहा, “पहले थोड़ा पानी-वानी पिलाइए। दो दिन तक भटकते-भटकते आप के यहाँ तक पहुँचा हूँ, नहीं तो पहुँच नहीं पाता। आपका ना नाम याद है, ना पता याद है।“ विशेषज्ञ ने…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org