स्वयं को बदलना असंभव व आवश्यक दोनों लगे तो
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प्रश्न: ख़ुद को बदलना अगर आवश्यक लेकिन असंभव लगता हो तो?
आचार्य प्रशांत जी: मान लो कि असंभव है।
प्रश्नकर्ता १: लेकिन वो हल नहीं है। बहुत सारी परेशानियाँ हो रही हैं।
आचार्य प्रशांत जी: जो असंभव होगा, उसकी कोई आत्मिक चाह आपको उठ नहीं सकती।
इस सूत्र को अच्छे से पकड़ लीजिए ।
मुक्ति संभव है, इसका प्रमाण ही यही है कि आपके अंदर बंधनों को लेकर वेदना उठती है।
मुक्ति असंभव होती तो वेदना न उठती।
तो जो संभव है, उसको क्यों व्यर्थ असंभव बताये दे रही हैं। संभव को असंभव बताकर के अपने लिये बहाना तैयार कर रही हैं अकर्मण्यता का। बहलाना-उलझाना चाहती हैं कि — “सत्य, और मुक्ति, और आनंद, ये तो असंभव हैं, तो कोशिश करने से भी क्या होगा? साहस दिखाकर के भी क्या होगा?”
देख नहीं रहीं हैं कि ये सब भय के लक्षण हैं। किसी को डराना हो तो क्या कहा जाता है? कि — “जो तुम चाह रहे हो वो मिलना असंभव है।” अब वो डर भी जाएगा, हतोत्साहित भी हो जाएगा। उसकी सारी प्रेरणा सूख जाएगी। क्यों अपनी प्रेरणा को सुखा देना चाहती हैं?
प्रश्नकर्ता १: कुछ अतीत के अनुभवों के कारण अगर ऐसा लग रहा है?
आचार्य प्रशांत जी: अतीत में आपने मुझसे ये सवाल पूछा था? पूछा था क्या?
प्रश्नकर्ता १: तब तक मैं आपको जानती नहीं थी।
आचार्य प्रशांत जी: तो जब आज ये सवाल आप पहली बार पूछ सकती हैं, तो ज़िंदगी में और भी कुछ है न जो पहली बार घटित हो सकता है? ये जो बात अभी समझ में आ रही है, ये पहले आई थी? नहीं आई थी न? तो अब जो होगा, वो भी पहले नहीं हुआ था। ऐसा हो सकता है न? असंभव तो नहीं है न?
ये गड़बड़ कभी मत कर दीजिएगा। बंधन कितने भी आवश्यक लगें, श्रद्धा रखिएगा कि अनावश्यक हैं। बंधन कितने भी आवश्यक लगें, उनके पक्ष में कितने भी बौद्धिक तर्क उठें, या भावनाएँ उठें, सदा याद रखिएगा कि वो आवश्यक लगते हैं, हैं अनावश्यक। और जो अनावश्यक है, उसे मिटना होगा।
और मुक्ति और सत्य कितने भी असंभव लगें, या जीवन के किसी रूमानी पड़ाव पर अनावश्यक लगें, तो भी याद रखिएगा कि वो संभव ही नहीं हैं, वो नितांत आवश्यक हैं।
वो संभव ही नहीं हैं, वो आपको जीने नहीं देंगे अगर आपने उन्हें पाया नहीं।
सत्य को पाना कोई वैभव, विलासिता की बात नहीं है कि एक तो सामान्य जीवन होता है, सामान्य लोगों का, और कुछ लोग थोड़ी उच्च-स्तरीय माँग भी रखते हैं। वो कहते हैं,”हमें तो परम सत्ता चाहिये, परम वैभव चाहिये, सत्य…