स्वयं के भीतर जाना

आचार्य प्रशांत: आठवें श्लोक के अगले अंश पर आओ।

“दृढ़ता के साथ इन्द्रियों को मानसिक पुरुषार्थ कर अंतःकरण में सन्निविष्ट करें।”

माने इन्द्रियों को और मन को अंतःकरण — माने यही छाती, हृदय, जो कि सत्य का और आत्मा का प्रतीक है — इन्द्रियों को अंतःकरण तक ले आना, माने मन को आत्मा तक ले आना।

इन्द्रियों के माध्यम से बाहर कौन झाँकता रहता है? इन्द्रियों का प्रयोग करके बाहर कौन संसार की रचना करता है? मन करता है न। तो जब कहा जाता है कि इन्द्रियों को अंतःकरण में प्रविष्ट कराना है या सन्निविष्ट कराना है, तो उससे आशय यह है कि मन को आत्मा के निकट रखना है।

मन भागना चाहता है, कहाँ को? दुनिया को, संसार को। लेकिन मन को रखना कहाँ है? सत्य के पास। किसलिए? कोई कागज़ी अनुशासन की बात है क्या? कोई ऊपरी फ़रमान है इसलिए? नहीं, इसलिए नहीं, बात सीधे-सीधे हानि-लाभ की, मुनाफ़े की है। मन परेशान तो है ही, इसमें तो कोई दो राय नहीं। और ये जो परेशान मन है, ये बाहर को भाग करके अपनी परेशानियाँ कम नहीं करता, बढ़ाता ही है। बस इसलिए मन को बाहर जाने की अपेक्षा भीतर भेजना बेहतर है। मन का ही लाभ है उसमें।

भीतर भेजने से आशय क्या होता है?

जो कहते हैं न कि ‘भीतर भेजो, भीतर भेजो!’ भीतर भेजने का मतलब होता है मन को वहाँ भेजना जहाँ से उसकी सारी इच्छाएँ उठ रही हैं। मन लगातार गतिशील रहता है न? मन किस दिशा को गति करता रहता है? अपनी इच्छा की दिशा में। (जिधर) इच्छा है, मन उधर को ही भाग लिया। तो संसार की ओर देखना, माने इच्छा जहाँ को ले जा रही…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org