स्मरण और स्मृति में क्या अंतर है?
नामु राम को कलपतरु, कलि कल्यान निवासु।
जो सिमरत भयो भाँग ते तुलसी तुलसीदास।।
~ संत तुलसीदास
आचार्य प्रशांत: राम का नाम ‘कल्पतरु’ है, कल्पवृक्ष; माँगे पूरी करने वाला, मन चाहा अभीष्ट देने वाला। और कल्याण निवास है, “कल्यान निवासु” — वहाँ पर तुम्हारा कल्याण बसता है। “जो सिमरत भयो” — जिसको स्मरण करने से; “भाँग ते तुलसी तुलसीदास” — भाँग मतलब ‘बेहोशी’; जब तक तुलसी ‘तुलसीदास’ नहीं हुए थे, कहते हैं कि, “मैं भँगेड़ी-सा था, नशे में था, व्यर्थ था, बिना मोल का था।”
राम का नाम ‘कल्पतरु’ है और ‘कल्याण निवास’ है, जिसका स्मरण करने से तुलसी ‘तुलसीदास’ हो गए।
ये बात क्या है? कौन-सा मंत्र दे रहे हैं? क्या कह रहे हैं? कह रहे हैं, “कुछ ऐसी चीज़ है जिसको स्मरण करने से आदमी बदल ही जाता है, कुछ-का-कुछ हो जाता है।”
ये क्या चीज़ है? कुछ समझ में नहीं आ रहा? हमें तो गुरुजन ये भी सिखा गए हैं कि स्मृतियों में न रहा करो, और यहाँ कहा जा रहा है कि कुछ ऐसा है जिसको स्मरण करने से आप घास (भाँग घास होती है) से तुलसीदास हो गए।
ये कौन-सा स्मरण है? आपमें से कई लोग शिक्षक हैं। आपसे जब आपके छात्र पूछते हैं कि, “अतीत बड़ा सताता है, स्मृतियाँ हावी हो जाती हैं,” तो आप कहते हैं, “क्या स्मृतियों में जीते हो? अरे, वर्त्तमान में जियो!” और यहाँ कह रहे हैं तुलसी कि, “कुछ ऐसा है जिसका सतत स्मरण घास को तुलसीदास बना देता है”। ये क्या बात है? क्या माजरा है?