सोचिये खूब, पर श्रद्धा में

देखो सोचने-सोचने में अंतर है। एक सोचना ये है कि, समझना है यहाँ पर इस बात को। हम यहाँ बैठे हैं, कोई आफत आ गई। मुझे पक्का है कि मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता, लेकिन अब आफत आयी है तो सोचना पड़ेगा कि इसका करना क्या है। पाँच विकल्प हो सकते हैं, थोड़ी जानकारी चाहिये होगी, किसी से बात करनी पड़ सकती है, दो-चार फ़ोन घुमाने पड़ सकते हैं। पर इस पूरी प्रक्रिया में मेरे भीतर ये श्रद्धा पूरी है कि कुछ बिगड़ नहीं सकता। मैं कर तो रहा हूँ, मैं सोच भी रहा हूँ कि अब अगला कर्म क्या होना चाहिए, मैं ये सब कर तो रहा हूँ, लेकिन ये सब करते हुए भी मुझे पता है कि मेरी जीत निश्चित है। एक ये सोचना है। यहाँ आपको ये गहरा से गहरा विश्वास है कि मैं सुरक्षित हूँ, मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता है। एक दूसरा सोचना है। आफ़त आई और मैं पूरा हिल गया। और अब मैं सोच रहा हूँ कि मेरा क्या होगा, कि मुझे कौन बचायेगा।

सोचने-सोचने में अंतर है। केंद्र पर स्थित रहकर सोचा जाता है, वो एक सोचना है। उस सोचने में कोई तनाव नहीं है। तुम श्रद्धा में बैठे हो, फिर सोच रहे हो। आश्वस्ति पूरी है, पहले से ही है। दूसरा सोचना श्रद्धाहीन सोचना है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org