सुरक्षा नहीं मकान में, लड़की रहो उड़ान में
एक तथ्य है कि समाज में तमाम तरीके की हिंसा है; तथ्य है। इसको तुम गुब्बारे की तरह फुला नहीं सकते न। और जब आदमी तथ्यों को देखे, तो तथ्यों को उनकी पूर्णता में देखना पड़ेगा। ये सच है कि आदमी के मन में विकृतियाँ बढ़ रही हैं, पर ऐसा भी नहीं है कि समाज कभी बड़ा साफ-सुथरा रहा हो। आज तुम को जब चारों तरफ सुनने को मिलता है, पढ़ने को मिलता है, कि ऐसी घटना और वैसी घटना, तो ऐसा भी नहीं है कि ये घटनाएँ पहले नहीं घटती थीं। सच तो ये है कि आज की औरत के हाथ में थोड़ी ज़्यादा सामर्थ्य है तो इसलिए वो चिल्ला कर बता देती है कि मेरे साथ इस तरह दुराचार हुआ। पहले तो और ज़्यादा होता था, बता पाने की आवाज़ भी नहीं थी उसके पास। पुलिस में जाकर के एक ऐफआईआर भी नहीं लिखा सकती थी।
ये हुआ एक तथ्य कि जब कहा जाता है कि घटनाएँ बढ़ रहीं हैं तो घटनाएँ बढ़ी तो हैं पर ऐसी कोई बाढ़ नहीं आ गयी है क्योंकि ये धारा हमेशा से बह रही है। ये पहली बात है। दूसरी बात, जब तुम कहते हो कि घटनाएँ बढ़ी हैं तो तुम बात ये करते हो कि सड़क पर, गली में और मोहल्ले में ये सब घटनाएँ हो रहीं हैं। तुम इस तथ्य को बिल्कुल ही भूल जाते हो कि ऐसी घटनाएँ तो सबसे ज़्यादा घरों के अंदर होती हैं। एक बहुत बड़ा अनुपात है उन लड़कियों का, महिलाओं का, जो घर के भीतर ही तमाम तरह के शोषण और हिंसा का शिकार होती हैं। सम्बन्धी, पिता, भाई, पति, उनकी क्या गिनती है? तो अगर तुमसे कोई कहे कि घर के बाहर मत निकलो, खतरा है, तो उनसे पूछो कि घर के भीतर क्या सुरक्षा है?
घर के भीतर सबसे ज़्यादा असुरक्षित जानते हो कौन सी लड़कियाँ होती हैं? जो जीवन भर घर के भीतर ही…