सुनने का वास्तविक अर्थ

एक बात अच्छे से पकड़ लो। विचार, विचार को पकड़ता है और मौन, मौन से जुड़ता है। मन शब्दों के अलावा कुछ सुन नहीं सकता, मौन को मौन ही सुनेगा। कीमत सिर्फ़ मौन की है। सुनने का अर्थ है इधर के मौन ने, उधर के मौन से एका कर लिया। मौन, मौन से जुड़ गया; अनंतता, अनंतता से मिल गई। सुनने का अर्थ है: “मैं, मैं न रहा, तू तू न रहा; मैं भी खाली, तू भी खाली।’’ खाली, खाली से मिल गया; पूर्ण पूर्ण से मिल गया। अपूर्ण कभी पूर्ण से नहीं मिल पाएगा। अपूर्ण और पूर्ण तो आयाम ही अलग-अलग हैं, उनका कोई मिलन नहीं होता। पूर्ण से मिलने के लिए, पूर्ण ही होना पड़ता है। मौन को सुनने के लिए, मौन ही होना पड़ता है।

मैं अभी बोल रहा हूं तो दो तल पर घटना घट रही है। एक तल पर मेरे शब्द हैं, और एक तल पर मेरा मौन है। और तुम सब दो तलों पर बैठे हो अभी। जिनका मन सक्रिय है, वो अभी मेरे शब्द सुन रहे हैं, दूसरे जो मौन में हैं, वो आत्मा से जुड़ गए, वो मौन से जुड़ गए। विचार, विचार से जुड़ता है; मौन, मौन से जुड़ता है। जो जैसा है, वो उसी से जुड़ता है। जो जिस तल पर है, वो उसी से तो जुड़ेगा न! विचार के तल पर सिर्फ़ विचार है। विचार और विचार, जैसे दो मुर्दा चीज़ें हैं, जैसे रेत से रेत मिला हो एसा जुड़ना है उनका।

जैसे पानी से पानी मिला हो, ऐसे मिलता है मौन से मौन। जैसे सागर से सागर मिल गया हो। रेत से रेत मिल कर भी कभी, एक नहीं हो पाती। कितनी भी लगे कि इकट्ठा है, पर वो अपना मौजूद कायम रखती है। एक-एक कण अपना प्रथक अस्तित्व कायम रखता है। और जब पानी से पानी मिलता है, तो पूरा एक हो जाता है। अलग-अलग नहीं कर पाओगे अब। विचार कितना भी सूक्ष्म हो, सूक्ष्मतम रेत का दाना बन जाएगा। पर उसमें उसकी जड़ता, उसकी ठसक, उसकी रिजिडिटी कायम रहती ही है, वही तो अहंकार है। वो कभी अपनेआप को गलने नहीं देगा। इसीलिए शब्दों को सुनना, सुनना है ही नहीं।

समझ रहे हैं न बात को?

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org