सुनना ही मोक्ष है

सुणि सुणि मेरी कामणी पारि उतारा होइ ॥२॥

(श्री गुरू ग्रन्थ साहिब जी, अंग ६६०)

वक्ता: सुणि सुणि मेरी कामणी पारि उतारा होइ|

सुन-सुन कर मैं पार उतर गयी| सुन-सुनकर पार उतर गयी| (‘सुन’ शब्द पर ज़ोर देते हुए)

क्या अर्थ है इसका? सुन-सुनकर तर गयी|

सुनने का अर्थ है- निर्विकल्प भाव से सुनना| आँखों के पास हमेशा विकल्प होता है, आँखों के पास हमेशा विकल्प है, देखेंगे या नहीं देखेंगे| कानों में और आँखों में एक मूल अंतर है| आँखें कर्ताभाव से चलती हैं, जो चाहोगे वो देखेंगी, और जब तक चाहोगे तभी तक देखेंगी| तुम आँख घुमा सकते हो, तुम पलकें भी बंद कर सकते हो| कानों में ऐसा कोई विकल्प तुम्हें उपलब्ध ही नहीं है|

सुनने का अर्थ है, ‘मैं तो बैठ गया हूँ| मैं तो स्थिर हो गया हूँ| अब जो है, वो मुझसे गुज़र रहा है’| सुनने का अर्थ है, ‘मुझे कुछ करना नहीं है क्योंकि मैं करूँगा तो और गड़बड़ होगी’| उसी ‘करने’ से तो मुक्त होना है| ‘मैं तो बस हूँ, मौजूद हूँ’, जिसे ज़ेन में कहते हैं, ‘खाली बाँस हूँ मैं और मुझसे गुज़र रही है आवाज़| मुझसे गुज़र रही है आवाज़, मैं कुछ कर नहीं रहा’, यह है ‘सुनना’|

‘सुन-सुनकर पार उतर गयी’, इससे अर्थ इतना ही समझिये कि सुनना ही पार उतरना है, सुनना माध्यम नहीं है, सुनना ही अंत है, सुनना ही शिखर है| सुनने ‘से’ कुछ नहीं हो जाएगा, सुनना ही अंतिम बात है| अगर सुन लिया, तो हो गया| कब? तभी, उसके बाद नहीं कि सुना अभी और भविष्य में लाभ होगा| न, सुना नहीं कि काम हुआ| तभी कह रहा हूँ कि प्रयोगशाला है, सुनो| लाभ भविष्य में नहीं है, अभी है|

सुनने का अर्थ है, ‘अपने पूर्वाग्रहों से खाली हूँ मैं, उनसे चिपका नहीं हूँ, उन पर पकड़ नहीं बना रखी है, उन्हें महत्व नहीं दे रखा, उन्हें गंभीरता से नहीं लिया’| सुनने का अर्थ है, ‘पहचानों से खाली हूँ’|

कोई पहचान रखकर सुन नहीं पाओगे| सुनने के लिए तुम्हें अपनी पूरी अस्मिता से हटना पड़ता है, तब सुनना हो पाता है| देखने के लिए अस्मिता चाहिए| भूलना नहीं, किसी का चेहरा कैसा दिख रहा है, यह सदा इस पर निर्भर करेगा कि तुम उसे कहाँ से देख रहे हो|

(एक श्रोता की ओर देखते हुए) यहाँ ये सज्जन बैठे हुए हैं| तुम इन्हें ऊपर से देखोगे तो तुम्हें क्या दिखाई देगा? सिर पर बाल| सामने से देखोगे तो क्या दिखाई देगा? गोरा-गोरा चेहरा, और इधर-उधर से देखो तो न जाने क्या-क्या दिखाई देगा| लेकिन सुनोगे, तो कहीं भी हो, तुम्हें एक ही बात सुनाई देगी| आवाज़ ऊँची-नीची हो सकती है, लेकिन बात नहीं बदल जायेगी| समझ रहे हो न बात को?

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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