सुधरेगी तो पूरी ज़िन्दगी या फिर कुछ नहीं

आचार्य प्रशांत: पूरा जीवन अगर सुचारु नहीं है तो वो — ग्रंथ भी यही कहते हैं, मेरा भी अनुभव यही रहा है — की फिर बड़ा मुश्किल हो जाएगा आचरण पर नियंत्रण कर पाना। आहार-विहार तो आचरण की ही बात है ना — क्या खाया? क्या पिया? पूरी दिनचर्या, सारे सम्बन्ध, अखबार में क्या पढ़ रहे हैं, टीवी में क्या दिख रहा है, इंटरनेट पर क्या रुचि है और आचरण कैसा है, आहार-विहार कैसा है यह सब आपस में जुड़ी बातें है। कोई एक इनमें से अकेले ठीक कर पाना जरा मुश्किल काम रहा है।

आम तौर पर जब सुधरते हैं तो सब एक साथ सुधरते हैं, सुधरने के रास्ते मैं बाधा यह बात बन जाती है कि अगर किसी एक से मोह बैठ गया हो…आप ऐसे समझ लीजिए कि कोई बहुत बड़ी ट्रेन है, उसके सारे डब्बे आपस में जुड़े हुए हैं। यह सारे डब्बे, ये हमारी दिनचर्या के अलग-अलग भाग हैं या इसको जीवन के अलग-अलग भाग समझ लीजिए। इसीलिए मैंने दिनचर्या सम्बंधित प्रशन किया था। इनको जुड़े ही रहना है इन्हें अलग अलग कर पाने का कोई तरीका नहीं है। इनमे से एक भी डब्बा अगर चलने से इनकार कर दें तो बाकी भी नहीं चल पाएँगे।

मैं इसी बात को थोड़ा और आगे ले जाता हूँ, अगर रेलगाड़ी है और लम्बी रेलगाड़ी है तो उसमें सैकड़ों पहिये होंगे। उनमें से अगर एक पहिया भी चलने से इनकार कर दे तो बाकी भी बहुत दूर नहीं जा पाएँगे, बाकियों पर बहुत ज़ोर पड़ेगा, बड़ा घर्षण हो जाएगा। तो हमारी जो समूची दिनचर्या है उसको आप डब्बे मानियेगा और दिनचर्या के भी सूक्ष्म अंगो को आप डब्बे के पहिये मानियेगा। चलेंगे तो सब साथ चलेंगे। और अगर एक भी अटक रहा है तो या तो पूरी तरह से रोक देगा ।या फिर अगर व्यवस्था आगे बढ़ेगी भी तो घिसटकर बढ़ेगी।

एक भी पहिया ऐसा न हो जिसने पटरी से मोह बाँध लिया हो, तादात्मय स्थापित कर लिया हो। कुछ भी जीवन में अगर ऐसा रहता है ना, जहाँ फँस गया आदमी तो वो छोटा सा हिस्सा नहीं फसता, आदमी समूचा का समूचा फंसता है। इतना बड़ा शरीर है, लेकिन मेरी ये छोटी उंगली भी अगर इस मेज से चिपक गई तो ये उंगली नहीं चिपकी, मैं ही चिपक गया। और अक्सर यही चूक हो जाती है, हम अस्सी प्रतिशत मुक्त हो जाते हैं, हम पिचान्य्वे प्रतिशत मुक्त हो जाते हैं; यह छोटी उंगली का मेज से मोह नहीं जाता, कुछ ना कुछ रह जाता है जो पकड़े रहता है।

और फिर इसीलिए जो हिस्से मुक्त भी हैं वो भी मुक्त नहीं रह पाते, हाथ बहुत कोशिश करेगा इधर-उधर जाने की, मन कोशिश कर लेगा उड़ पाने की लेकिन यह ज़रा सी छोटी उंगली, बाँध के रख देगी पूरे तंत्र को। यह बड़ी सतर्कता माँगता है। यहाँ पर आकर करीब-करीब सब फँस जाते हैं और भ्रम भी हो जाता है ना, की निन्यानवे प्रतिशत तो छूट ही गए। पूर्णता का मतलब ही यही है — ‘या तो उपलब्ध होती है, तो पूरी; पूर्णता है ना, तो पूरी ही मिलेगी और नहीं…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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