सुख कैसे धोखा देता है?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने पहले कहा कि चेतना को पूर्णता चाहिए, यानी सत्य चाहिए, वो बिंदु चाहिए। लेकिन चेतना छली जाती है, यानी कि सुख से छली जाती है एक तरह से। तो उस सुख में ऐसा क्या है जो वो सत्य जैसा प्रतीत होता है?

आचार्य प्रशांत: दुःख का अभाव।

मुक्ति में और सुख में जो एक चीज़ साझी है वो है दुःख की अनुभूति की अनुपस्थिति। मुक्ति में भी दुःख नहीं है, और सुख में भी दुःख नहीं है, लेकिन अंतर बड़े हैं। अंतर ये है कि मुक्ति में दुःख और सुख दोनों से मुक्ति है। मुक्ति में दुःख और सुख दोनों से पूर्ण और सतत मुक्ति है। सुख में कुछ समय के लिए दुःख की अनुभूति भर स्थगित हो जाती है। जैसे सिक्के का जब आप एक चेहरा देखें, तो उतनी देर के लिए सिक्के के दूसरे चेहरे का अनुभव स्थगित हो जाता है। पर वो चेहरा कहीं चला नहीं गया। कितनी देर तक आप सिक्के का एक ही चेहरा देखते रहेंगे? और सिक्के के एक चेहरे से आसक्त होने के कारण सिक्के को आप जितना अपने निकट रखेंगे, वास्तव में आपने सिक्के के दूसरे चेहरे को भी अपने उतने ही निकट बुला लिया है।

सुख की ये बात है। वो दुःख को हमेशा अपने साथ रखता है। हमारी दृष्टि अगर ऐसी होती कि वो एक साथ सिक्के के दोनों पहलुओं को देख पाती, तो सुख हमें छल नहीं पाता। पर ये इन्द्रियों का धोखा है। ये अनुभव लेने वाले मन की असमर्थता है कि वो सिक्के के एक ही पहलू को देख पाता है, उसका अनुभव ले पाता है। वो ठगा जाता है। ठीक वैसे जैसे हम ठगे जाते हैं जब कोई किसी दीवार के पीछे छुप गया हो।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org