सुंदर रिश्ता खोने का अफ़सोस
रिश्ते शुरू तो सब प्रकृति से ही होते है। जीव का जो पहला संबंध होता है, वो भी पूरी तरह से प्राकृतिक ही होता है। पिता-माता की कोशिकाओं से ही जीव की शुरुआत होती है, तो प्रकृति जीव को संबंधित देखना चाहती है लेकिन उस पूरी सम्बन्धों की व्यवस्था में कही भी जीवन के उच्चतर मूल्य निहित नहीं होते है।
हर जीव, हर व्यक्ति रिश्ता बनाने को आतुर रहेगा ही और रिश्ता बनाएगा ही, लेकिन रिश्ता बनाने का आवेग उठेगा, रिश्ता बनाने की जो आंतरिक प्रेरणा उठेगी वो सर्वप्रथम शारीरिक केंद्र से ही उठेगी, ये तथ्य है। तथ्यों की न तो पूजा की जाती है न तो भर्त्सना की जाती है, तथ्यों को बस स्वीकार किया जाता है, जैसा हमें बनाया गया है, जैसी हमारी प्राकृतिक संरचना है, उसके कारण, उसके चलते, हम अपने चारों और की दुनिया से संबंध बनाते ही रहते है। सब इन्द्रियों से, मन से हम रिश्ते स्थापित कर ही रहे हैं, किसी न किसी से जुड़ ही रहे है, किसी न किसी से नाता रख ही रहे है। जब भी किसी से जुड़ते है, नाता बनाते है, उसमें पहली प्रेरणा यह रहती है की प्रकृति का चक्र चलता रहें।
इस पूरी प्राकृतिक व्यवस्था में एक विचित्र जंतु फंस गया है, जिसका क्या नाम है? इन्सान की हालत बड़ी विचित्र है, है प्रकृति लेकिन वो प्रकृति की व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हो पाता। हमारी हालत ये है कि हम प्रकृति में है और चूंकि प्रकृति में हैं इसलिए प्रकृति में जितने ज्वार-भाटें आते हैं उनका असर हम पर पड़ता है। बुद्ध हो, महावीर हो, रमण महर्षि हो बीमारी सबको लगेगी। ये हमेशा याद रखना होगा कि आप कितना ही पढ़ लिख ले, कितने भी समझदार हो जाए, प्रकृति उसी तरह से आप पर…