सिर्फ़ ऐसे बच सकते हो अवसाद (डिप्रेशन) से

दुःख की हर स्थिति में दो होते हैं: एक दुःख देने वाला, दूसरा दुःख सहने वाला। ये दोनों एक ही सिक्के के पहलू होते हैं — एक के बिना दूसरा हो नहीं सकता। दुःख, पीड़ा, कष्ट की हर स्थिति में, हर मामले में इन दो को आप मौजूद पाएँगे: वो स्थितियाँ जिन में दुःख का अनुभव हुआ और वो इकाई जो दुःख का अनुभव करती है — ये दो लगातार मौजूद रहेंगे। तो जब भी आपको उपचार करना होगा, इन्हीं दो में से किसी एक का करना होगा। किसी एक का उपचार कर लो, दूसरे का अपने आप हो जाता है क्योंकि ये दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

अध्यात्म कहता है कि शुरुआत तो करो तुम उसका उपचार करने से जो दुःख सहने के लिए इतना आतुर रहता है क्योंकि बाहर की स्थितियाँ बदल पाना हर समय हमारे हाथ में होता नहीं। दूसरी बात अगर तुम्हारे भीतर वो जमा ही बैठा है जो दुःख सहने को तैयार है, तो तुम बाहर की परिस्थितियाँ बदल भी दोगे, तो वो दुःख पाने का कोई और तरीका ढूंढ लेगा। तो इन दोनों में भी अगर उपचार करना है, तो वरीयता किसको दो? भीतर वाले को। भीतर वाले को वरीयता दो पर बाहर वाले का परिवर्तन भी अवश्यंभावी है क्योंकि भीतर का मामला जब बदलने लगेगा, तो तुम बाहर वाले को भी बहुत दिन तक पकड़े नहीं रहोगे।

भीतर कोई बैठा था जो दुःख पाना चाहता था, इसीलिए बाहर-बाहर तुम उस से जुड़े रहते थे जो तुम्हें दुःख देता था। जब भीतर तुमने उसका उपचार कर लिया जो दुःख पाने के लिए आतुर था, तो बाहर भी अब तुम उससे जुड़े रहने के अभिलाषी रहोगे ही नहीं जो तुम्हें दुःख देता था। तो भीतर-बाहर दोनों परिवर्तन हो जाते हैं। जब भीतर का होने लगे तब बाहर का परिवर्तन…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org