सारे धर्मों का स्रोत क्या है?

आचार्य प्रशांत: तुम पूछ रहे हो कि सारे धर्मों का स्रोत क्या है। सारे धर्मों का स्रोत है जीवन। जिस किसी ने कहा कुछ भी, चाहे वो धार्मिक आदमी हो, चाहे वो अपने आप को धार्मिक ना बोलता हो; ‘धर्म’ सिर्फ एक शब्द है। जिस किसी ने जब भी कोई समझदारी की बात की, जिंदगी को देख कर के की। ध्यान रखना, जिंदगी के अलावा और कहीं से भी बोध जगता नहीं। जिसने भी जाना है, उसने जीवन को देख कर जाना है। तुम्हें हैरत होगी, ‘क्या देख कर जाना है?’

पौधों को देख कर जाना है, पहाड़ों को देख कर जाना है, आदमी की आँखों को देख कर जाना है, जन्म को देख कर जाना है, मृत्य को देख कर जाना है। सिर्फ इन्हीं को देख कर के जो जाना गया है, आज तक जाना गया है। इनके अलावा, यकीन मानो, कोई स्रोत नहीं है। कभी कोई देववाणी नहीं होती। कहते होंगे कि वेद आएँ हैं ब्रह्मा के मुख से, वो बात सिर्फ प्रतीक है। जिन ऋषियों ने वेदों की ऋचाएँ लिखीं, वो जीवन के संपर्क में थे, ब्रह्मा के संपर्क में नहीं। हाँ, अब तुम जीवन को ही ब्रह्मा कह दो, सो अलग बात है।

जीवन को देखते थे, देखते थे कि अच्छा, बच्चा जन्म लेता है तो कैसा होता है, अच्छा, फिर धीरे-धीरे वो आदतें ग्रहण करनी शुरू करता है, कैसे आता है ये सब। जाते थे, देखते थे पत्ते आ रहे हैं पेड़ों में, और फिर एक दिन अचानक उसमें फूल भी आ गया, और चुप होकर, अवाक् होकर वो उसको देख रहे हैं, जैसे बच्चा देखता है न और देख रहे हैं कि ये हुआ क्या? जो था ही नहीं, वो प्रकट हो गया। कुछ नहीं से कुछ आ गया। यहीं, यहीं से धर्म निकलता है। जब कोई आदमी निमग्न होकर के, मौन हो कर के, शांत होकर के, ध्यान से जीवन को देखता है, पूरा-पूरा डूब कर के, तब उसको जो बोध मिलता है, उसी का नाम ‘धर्म’ है।तुम शायद पूछोगे कि फिर धर्म अलग-अलग क्यूँ है? धर्म अलग सिर्फ इसलिए है, क्यूँकी भाषाएँ अलग हैं। धर्मों का अलग होना, सिर्फ भाषा का अलग होना है। जिसने भी जाना है, ज़ीशान(एक श्रोता कि ओर इशारा करते हुए), एक ही को जाना है। मौन की कई भाषाएँ नहीं होतीं, उस मौन को व्यक्त करोगे तो भाषाएँ हो जाएँगी।

जिसने भी जाना है, मौन में जाना है। जिसने भी जाना है, मौन को ही जाना है।

हाँ, लेकिन जब उसको व्यक्त किया है, तो उसी भाषा में किया है जो भाषा उसे आती थी। उसी भाषा में किया है, जो भाषा उसके आस-पास के लोगों को समझ में आएगी। पर जाना हमेशा एक ही बात को गया है क्योंकि दूसरा कुछ है ही नहीं जानने को।

जीवन तो एक है, धर्म अलग-अलग कैसे हो सकते हैं?

सत्य तो एक है, तो सत्य अलग-अलग कैसे हो सकते हैं? क्या तुम ये कहते हो, कि ईसाई का और हिन्दू का अलग-अलग विज्ञान होगा? अरे! जब विज्ञान तक एक है, तो सत्य दो-चार कैसे हो सकते हैं?

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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