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सारा जहाँ मस्त, मैं अकेला त्रस्त

मेरे पास लोग आते हैं। और कई बार धोखे से, ईमानदारी के किसी श्रण में कह ही जाते हैं कि आचार्य जी आपके पास आये, बड़ी संगत करी, बड़ी बातें सुनी, पालन भी किया, लेकिन वो सब नहीं मिला जो हमे चाहिए था। बड़ा दर्द रहता है लोगों के दिलों में। मैं पूछता हूँ कि इस बात के शुक्रगुजार नहीं हो तुम मेरे कि तुम्हे वह सब नहीं मिला जो तुम्हें चाहिए था? मेरा काम वह नहीं है जो तुम चाहते हो। तुम मुझे बस ये बता दो कि जैसे तुम थे पहले और जैसे तुम आज हो मेरे पास आने के बाद क्या तुम दोबारा वैसा होना चाहोगे जैसे यहाँ आने से पूर्व थे? और अगर होना चाहते हो तो है मेरे पास एक जादुई डंडा! आजकल यह सब बहुत चलते हैं, मेरे पास भी है एक जादुई डंडा। मैं तुमको फिर वैसा ही करे देता हूँ जैसा तुम यहां आने से पहले थे। बोलो चाहिए?

बोलते हैं नहीं-नहीं वैसे तो हम किसी हाल में नहीं होने चाहेंगे जैसे हम पहले थे। वह आदमी ही बड़ा मूरख था। न जाने कैसे-कैसे हास्यास्पद भ्रम पाले बैठा था। जो बातें बिल्कुल प्रत्यक्ष हैं, स्पष्ट, वह भी उसको दिखाई नहीं देती थी तो वैसा तो अब हम किसी हालत में नहीं होना चाहते जैसे हम आपसे मिलने से पहले थे आचार्य जी। तो मैं कहता हूँ बस मुहँ बंद रखो और ज़िन्दगी को सही दिशा में आगे बढ़ाते रहो।

शांति की तुम्हारी जो परिभाषा है वह एक अशांत मन से आ रही है तो तुम्हारी शांति की परिभाषा ही गलत है। हल्केपन की जो तुम्हारी परिभाषा है वह बड़ी भारी केंद्र से आ रही है। तुम्हारे हल्केपन की परिभाषा ही गलत है। हित की और आनंद की तुम्हरी जो परिभाषा है वो बड़े नशे के, बड़े बेहोशी के केंद्र से आ रही है। तो तुमहारे हित की…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant
आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

Written by आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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