सामान लौटाओ, चैन से सोओ

आचार्य प्रशांत: कोई ऐसा नहीं है जो समाप्त हो जाना चाहता हो। बड़ी अजीब बात है ये; कोई आयु हो, कोई वर्ण हो, कोई रंग हो, कोई लिंग हो, कोई देश हो, कोई काल हो — जैसे हम सब के भीतर बने रहने की एक निरंतर अभीप्सा रहती है। कोई बात तो होगी? बात ये है कि मिट जाना हमारा नैसर्गिक स्वभाव है ही नहीं। मिट जाना एक झूठ है जो हमें प्रतीत होने लग जाता है। उस झूठ का कोई मेल नहीं बैठता, हमारी आत्मा से तो फिर भीतर एक खलबलाहट उठती है।

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org