सामान लौटाओ, चैन से सोओ

आचार्य प्रशांत: कोई ऐसा नहीं है जो समाप्त हो जाना चाहता हो। बड़ी अजीब बात है ये; कोई आयु हो, कोई वर्ण हो, कोई रंग हो, कोई लिंग हो, कोई देश हो, कोई काल हो — जैसे हम सब के भीतर बने रहने की एक निरंतर अभीप्सा रहती है। कोई बात तो होगी? बात ये है कि मिट जाना हमारा नैसर्गिक स्वभाव है ही नहीं। मिट जाना एक झूठ है जो हमें प्रतीत होने लग जाता है। उस झूठ का कोई मेल नहीं बैठता, हमारी आत्मा से तो फिर भीतर एक खलबलाहट उठती है।

मौत इसीलिए किसी को भाती नहीं। मौत वास्तव में इसलिए नहीं भाती क्योंकि मौत एक असंभावना है। मौत घटित हो नहीं सकती लेकिन लग ऐसा रहा है कि मौत आ रही है। ये जो असमायोजन है, ये जो बेमेल घटना है, जो अनहोनी है, ये हमको विचलित कर जाती है। भीतर ही भीतर हम जानते हैं कि मिट तो हम सकते नहीं, लेकिन बाहर-बाहर जो कुछ है वो हमको पूरे तरीके से यही प्रमाणित कर रहा है कि तुम तो मिटोगे। अब भीतर वाले की बात झुठलाई नहीं जा सकती और बाहर वाले की बात अनसुनी नहीं की जा सकती। हम फँस जाते हैं। भीतर एक घर्षण शुरू हो जाता है। इसीलिए मौत इतना बड़ा मुद्दा है हमारे लिए।

जब तक जगत से संबंधित कर रखी है तुमने अपनी केंद्रीय मूल आत्यंतिक हस्ती, तब तक तुम मिट जाने के, मौत के भय में ही जियोगे। मृत्यु के पार जाने का सिर्फ एक तरीका है कि तुम उन सब चीजों की अनित्यता देख लो, अनात्मिकता देख लो, जो इस जगत की हैं।

खेल है जगत, एक चक्र है जगत, बच्चों का खिलौना जैसे एक लट्टू है जगत। बच्चा उठाता है उसे ज़मीन से घुमा देता है, फिरने लगता है लट्टू; या कोई फिरकी है जगत। कितनी देर तक अपनी धुरी पर…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org