साधन-चतुष्टय क्या है? साधक के लिए ये क्यों अनिवार्य है?

साधन-चतुष्टय क्या है? साधक के लिए ये क्यों अनिवार्य है?

हरि है खांड रेत मांहि बिखरी, हाथी चुनी न जाई। कहैं कबीर गुरु भली बुझाई, चींटी होय के खाई।। ~ संत कबीर

आचार्य प्रशांत: (प्रश्न पढ़ते हुए) कबीर साहब का एक श्लोक भेजा है, कह रहे हैं कि इसका अर्थ बताएँ। और कहते हैं कि “इन्होंने भी नित्य और अनित्य का मिश्रण कर डाला है, तो क्या समाधान है?”

हाथी माने स्थूल मन, मोटा मन, और उसके स्थूल उपक्रम। चींटी या कीट माने स्थूल को छोड़ कर सूक्ष्म हुआ मन। कह रहे हैं कबीर कि हरि ऐसे हैं जैसे रेत में शक्कर के महीन दाने मिले हुए हों। रेत में शक्कर के महीन दाने मिले हुए हैं, अब हाथी बेचारा फँस गया, उसके पास कोई विधा नहीं जिससे वो भेद कर सके, वो रेत से शक्कर को अलग नहीं कर पाएगा। तो कबीर कह रहे हैं कि “हरि-कृपा से, गुरु-कृपा से चींटी जैसे हो जाओ तुम, फिर तुम रेत से शक्कर को अलग कर पाओगे, भेद कर पाओगे।” यही विवेक है — भेद कर पाना; और ये भेद कर पाने के लिए तुम यदि हाथी जैसे हो तो असफल रहोगे, चींटी जैसा होना पड़ेगा। चींटी जैसे होने का क्या अर्थ है? सूक्ष्म हो जाना, छोटा हो जाना, हर बात की नज़ाक़त को देख पाना, हृदय के महीन तारों का झनझना उठना — ये सूक्ष्मता है। मात्र यही सूक्ष्मता नित्य और अनित्य का भेद कर पाती है। अगर तुम स्थूल हो, तो तुम्हारे लिए तो सब दाने एक बराबर हैं। अगर तुम सूक्ष्म हो, तो ही सत्य तुम्हारे लिए है, क्योंकि सत्य अति-सूक्ष्म है।

मोटे मन और झीने मन का अंतर समझना। मोटा मन पदार्थ से आसक्त रहता है, और सत्य कोई पदार्थ नहीं, तो मोटे मन से सत्य हमेशा आवृत रहेगा। मोटा मन…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org