साधना दुख देती नहीं, दुख को उघाड़ती है

साधना दुःख देगी क्या? तुम दुःख में हो तभी तो साधना शुरू होगी। अगर साधना सच्ची है तो वो शुरू तब होगी जब साधना ना करने के कारण तुम पहले ही पीढ़ा में हो। वो पीढ़ा तुम्हें विवश करती है अपने मन को जानने के लिए, जीवन को जानने के लिए और बदलाव लाने के लिए। इसको कहते हैं — साधना। और साधना का काम ही है कि जो तुम्हारी वर्तमान पीढ़ा है उससे तुम्हें निजात दिलाए।

साधना तुम शुरू ही इसलिए करते हो क्योंकि तुम पहले ही दुःख में हो। और साधना अगर सच्ची है तो वो दुःख कम होगा। साधना का मतलब है दुःख में प्रवेश कर जाना। उस कारण तक पहुंचना जो तुम्हें बार-बार दुःख देता है।

साधना दुःख का कारण कैसे बन सकती है? और साधना अगर लग रहा है कि दुःख का कारण बन रही है तो निश्चित रूप से तुम्हारा अभिप्राय हुआ कि तुम साधना से पहले और साधना के बाद सुख में थे। जब तुम साधना के बिना सुख में हो तो साधना कर काहे को रहे हो?

समझना एक बात को — कोई दैवीय या नैतिक अनिवार्यता थोड़े ही है साधना या आध्यात्मिक श्रम की। साधना दवा की तरह है। साधना अपने जीवन के खून से सींचे जाने वाला पौधा होता है। ज़िन्दगी के जिस पहलू में गांठ होती है उनको संबोधित करना होता है। इसका नाम साधना है। सबको अपने-अपने जीवन की अंतर्जगत की चुनौतियों की निजी पहचान करनी होती है। और निजी पहचान करके पहले तो समझदारी के साथ उनका विश्लेषण करना होता है कि बात क्या है? और उसके बाद सूरमा की तरह जूझ जाना होता है।

बहुत निजी, बहुत वैयक्तिक चीज़ है साधना। तुम्हारी साधना है कि तुम तनकर खड़े हो जाओ। तुम्हारा मन लचर है, तुम्हारा मन दुर्बल है। और दुर्बल मन को तो ये संसार भी नहीं मिलता, सत्य क्या मिलेगा?

जो काम तुमको पता है कि सही है तुम फिर भी नहीं करते, उनको करना साधना है। जो काम तुमको पता है कि गलत है फिर भी तुम करे जाते हो, उनको रोकना साधना है। साधना लगातार होती है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org