सांयोगिक से आत्मिक तक

हुकमी हुकमु चलाये राहु।

~ नितनेम

आचार्य प्रशांत: वो अपने हुक्म से राह पे चलाता है। राह तो सामने ही है। जहाँ खड़े हो वही से चलती है। हुकुमी ‘स्वभाव’ ही है तो कहीं दूर जाना नहीं है पूछने। हुक्म तभ भी उल्टा–पुल्टा हो जाता है, कदम फिर इधर–उधर पड़ते हैं क्योंकि जो दुनिया में सबसे अजीब काम हो सकता है, वो होता है। बाकी सब याद रहता है, अपने को भूल जाते हैं। कैसे याद रखें कि ‘पूछें’। कैसे याद रखे की ‘उससे’ पूछ के ही करेंगे।

श्रोता: समभाव मान लेना।

आचार्य जी: किसकी?

श्रोता: मन की।

आचार्य जी: ठीक है फिर। कृपया इस बात को मान लीजिये की आप भूल गए हैं ‘उसे’। कितनी सहूलियत भरी बात है न। यह भी भूल जाइये की उसकी मर्ज़ी है। यदि आप पूर्णत्या सब कुछ स्वीकरना चाहती हैं तो भी उसे भूल जाइये की उसकी मर्ज़ी जैसी कोई चीज़ है। यही याद रखिये की सब कुछ अहंकार है। उसकी मर्ज़ी है, उसी पे चलना हैं।

श्रोता: तो जब तक अहंकार है हम उसको को याद रख पाएँगे क्या?

आचार्य जी: समभाव शुरुवात नहीं हो सकता। ये बहुत ही हानिकारक बात हो जाएगी यदि शुरुवात में ही बोल दिया गया। शुरू में विवेक चाहिए। अंत में विवेक भी नहीं चाहिए। विवेक का अर्थ ही होता है ‘वैराग्य’, न की समभाव। जिस किसी ने भी तुम्हें पढ़ा दिया है समभाव, वो अभी समझता नहीं है।

श्रोता: पिछले बुधवार हमने जो विडियो चलाया था उसका जो अनुवादित संस्करण आया था। उसमें यह बार-बार दोहराया जा रहा है “समभाव।”

आचार्य जी: अनुवादित संस्करण भूल जाइये। ‘समभाव ‘ तो फिर यह भी है की नितनेम क्यों पढ़े, मस्तराम पढ़ें, समभाव।

श्रोता: मस्त नहीं। पूर्ण के मतलब मस्तराम शामिल नहीं!

आचार्य जी: यदि पूर्ण में शामिल नहीं है तो पूर्ण कैसे? यदि कुछ बाहर छूट रहा है तो पूर्ण कहाँ?

श्रोता: अगर आप मस्त मूवी का कोई ख्याल न लायें।

आचार्य जी: मैं मस्तराम की बात कर रहा हूँ! ये एक अशलील पत्रिका है। जब आप कहते हो समभाव तब आपका मन कहता है न ‘वैराग्य’ और न ही ‘विभाजन।’ समभाव, फल है। शुरवात में तो वैराग्य है उसके बाद? विवेक!

आख़री कदम पर आकेअष्टावक्र कहते हैं की “कह विवेक कह वैराग्य।” कैसा विवेक और कैसा वैराग्य। वो ख़री बात है। ‘साधक’ जहाँ शुरू करता है वहाँ उसे विवेक चाहिए। जो शुरू कर रहा हो वो कह रहा हो, ना, मुझे कोई विवेक नहीं चाहिए। उसको तो भेद करना पड़ेगा की क्या लूँ और क्या ना लूँ। किसके साथ रहूँ और किससे बचूँ।

आख़री कदम पर जाके आप कह सकतो हो की अब किसी के भी साथ रह लूँ कोई फर्क नहीं पड़ता तो समभाव। तो अब काला और सफ़ेद एक बराबर हो गया। अब मुझे कोई बीमारी लग ही नहीं सकती तो इसीलिए मैं किसी के भी साथ रहूँ कोई अंतर नहीं…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

More from आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant