सांख्य दर्शन और वेदांत में भेद

प्रश्नकर्ता: मेरे जीवन में सांख्य और वेदांत दर्शन के पढ़ने के बाद काफ़ी बदलाव आया है। मैं आभारी हूँ कि जो मुझे पढ़ने का अवसर मिला, परन्तु दोनों दर्शन में कुछ मूल विरोध दिखाई देता है। मेरे सम्मत में आप नहीं दिखते, आप में सांख्य और वेदांत एक होते दिखते हैं। सांख्य दर्शन कहता है कि प्रकृति और पुरुष दोनों अलग-अलग सत्ता है, दोनों ही नित्य है। अद्वैत वेदांत कहता है, “ब्रह्मा सत्य है, जगत मिथ्या है।” इस स्थिति में हम किसको अनुकरण करें, मेरा सवाल यही है।

आचार्य प्रशांत: दोनों अलग-अलग लोगों से कहते हैं। दोनों जो बात कह रहे हैं ना, अलग-अलग लोगों से कह रहे हैं।

सत्य अपने शुद्धतम रूप में कोई वाक्य, कोई सिद्धांत नहीं होता, अपने शुद्ध्तम रूप में तो सत्य अरूप है, मौन है। सत्य जब भी किसी शब्द, या वाक्य, या सिद्धांत के रूप में कह दिया गया, तो समझ लीजिए कि वो किसी व्यक्ति के लिए सच है, वो किसी मौके का सच है, वो किसी संदर्भ का सच है। अब वो मात्र सच नहीं है, अब वो परिस्थिति-सापेक्ष सत्य है, अब वो काल-सापेक्ष, संदर्भ-सापेक्ष सत्य है।

आप बात समझ रहे हैं मैं क्या बोल रहा हूँ?

पूर्ण सत्य को तो न वेदांत कह सकता है, न सांख्य कह सकता है, न दुनिया का और कोई दर्शन कह सकता है। बल्कि इन सब दर्शनों ने स्वयं ही बड़ी ईमानदारी से कह दिया है कि, “जो पूर्ण सत्य है, एब्सोल्यूट ट्रुथ(पूर्ण सत्य), वो शब्द इत्यादि से आगे की बात है। शब्द क्या हैं, मन के खिलौने।” तो पूर्ण सत्य को तो लेकर के कोई दर्शन कभी कोई दावा करता ही नहीं है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org