समाधान से पहले सवाल रुकने नहीं चाहिए
प्रश्नकर्ता: प्रणाम, गुरु जी। आज जब हू ऍम आई? (मैं कौन हूँ?) पढ़ रहे था तो मन में आया - हम लोग बैठकर चर्चा कर रहे थे कि सवाल पूछने चाहिए तो जाकर कुछ मिलेगा। अंत में जो रह जाता है वो मैं हूँ - तो ये सवाल-जवाब करते-करते मैंने देखा सबके साथ कि बहुत उलझा हुआ हूँ मैं और उलझा ही रह जाऊँगा इस तरह से। तो कैसे मैं पहुँच जाऊँगा? ऐसे तो मैं जितने सवाल करूँगा, सवाल होते जाएँगे, सवाल होते जाएँगे और उलझते ही जाऊँगा।
आचार्य प्रशांत: तुम्हें कैसे पता कि सवाल करोगे तो सवाल होते ही जाएगा, होते ही जाएगा? तुमने कितने करे हैं आजतक? आजतक करे कितने हैं? ज़िन्दगी में कुल मिलकर पौने-तीन सवाल करे हैं और फिर कह रहे हो कि मुझे ये समझ में आया कि जितना करूँगा होते ही जाएगा, होते ही जाएगा, जैसे कि तुम अनंत सवाल कर चुके हो। करे हैं कुल पौने-तीन। तुम्हें कैसे पता, बताओ तो? तुमने ये कैसे अनुमान लगा लिया कि सवाल तो अंतहीन हैं? कैसे? आज दोपहरभर की मशक्क़त से तुमने जीवनभर का निष्कर्ष निकाल लिया?
सवाल अचानक आ नहीं गए हैं, उलझन अचानक बढ़ नहीं गईं हैं, जो उलझनें पहले से ही थीं वो उद्घाटित हो गई हैं, प्रकट हो गई हैं। अब वो प्रकट हो गई हैं तो बड़ा खौफ उठता है। क्या? कि, "अरे, हमारे भीतर इतनी गाँठें थीं, इतनी उलझनें थीं? तो ये सवाल-जवाब लगता है चीज़ ही गड़बड़ है। सवाल-जवाब करो तो भीतर की उलझन दिखाई देने लग जाती है, तो सवाल-जवाब करो ही मत।"
सवाल-जवाब बहुत ज़रूरी हैं। करो, जान लगा कर करो। वो घड़ी, वो बिंदु बहुत-बहुत बाद में आता है जब सवाल-जवाब की ज़रूरत नहीं रह जाती। वो आता है, लेकिन अभी उसकी बात करना व्यर्थ है।
ये ऐसी सी बात होगी कि कोई अभी बच्चा घुटनों के बल चलता हो और बस अभी उसने किसी तरीके से टेबल, मेज़ पकड़ कर खड़ा होना सीखा…