समभाव का अर्थ क्या है?
‘समभाव’ का अर्थ है ऐसा भाव जिसके विपरीत न जाना पड़े। कोई ऐसा भाव जो इतना आकर्षक हो, इतना विराट हो कि तुम्हें पूरा ही सोख ले अपने में। तुम्हें उससे हटकर के किसी और भाव की ज़रूरत न पड़े। चलो समझो!
संसार में जो कुछ भी करते हो, उसको चलाए रखने के लिए तुम्हें उसके विपरीत की शरण में जाना होता है। जो पढ़ाई करते हैं वह बोलते हैं, पढ़ाई बहुत हो गई अब ज़रा बाज़ार घूम के आते हैं, खेल के आते हैं। पढ़ाई करनी है तो बाजार जाना पड़ेगा। तुमने किसी दिन दस-बारह घंटे पढ़ाई कर ली या तीन-चार दिन ऐसे हो गए कि दस-बारह घंटे काम कर लिया। तो फिर दूसरे दिन, चौथे दिन या दसवें दिन तुम यह कहते हो कि ‘आज आराम’ या कि आज थोड़ा कहीं पर मन बदल के आते हैं, टहल के आते हैं। ठीक?
दुनिया में जो भी है वह यह आवश्यक कर देता है कि तुम उसके विपरीत के पास जाओ। क्योंकि दुनिया में कुछ ऐसा है ही नहीं जो तुम्हें पूरा का पूरा सोख ले, तुम्हें समा ले अपने भीतर। दुनिया में जो कुछ भी है सब छोटा-छोटा है। जो छोटा है, वो उबाऊ है। जहाँ कुछ छुटपन है, वहाँ घर्षण भी है। सच्चिदानंद परमात्मा समभाव का अर्थ हुआ उसकी सेवा में लग जाओ, उस काम को उठा लो, उस केंद्र से काम करो जहाँ तुम्हें किसी विपरीत की तलाश ही न रहे जहाँ पर किसी विपरीत की आवश्यकता ही न रहे। काम वह करो जिसके बाद तुम्हें मनोरंजन की ज़रूरत ही न पड़े। यह न कहो काम ज़्यादा हो रहा है, अब थोड़ा मनोरंजन भी तो चाहिए। काम ही मनोरंजन हो जाए! काम में हीं ऐसा आनंद है कि अब मनोरंजन किसे चाहिए? पर उसके लिए वह काम पहली बात आकर्षक होना चाहिए और दूसरी बात अनंत होना चाहिए। अनंत नहीं हुआ तो कभी खत्म होने…