समझे जाने की इच्छा कहीं सम्मान पाने की इच्छा तो नहीं?

किसी को कुछ देना, किसी को कुछ समझाना, बड़ी ही ज़िम्मेदारी की बात होती है। जो किसी को कुछ देने निकले, कुछ समझाने निकले, उसे सर्व-प्रथम अपनी छोटी-छोटी चिंताओं से और फिक्रों से मुक्त होना पड़ेगा। जो अभी इसी उधेड़-बुन में लगा हुआ है कि मेरा क्या होगा। वो अभी किसी और को कुछ दे नहीं पाएगा।

दे पाने की पात्रता आपकी पूर्णता से शुरू होती है।

जो अपने-आप में पूरा है, वही दूसरों को बाँट सकता है। जिसको अभी स्वयं ही यह लग रहा है कि मैं किसी को कुछ दूँ और बदले में मुझे उसका धन्यवाद प्राप्त हो जाए, उसको अभी हक़ ही नहीं है देने का। जो अभी इस आशा से दे रहा हो कि देने से सामने वाल कृतज्ञ अनुभव करेगा, उसने अभी देना सीखा नहीं है।

समझाने की कोशिश बुद्धों ने भी करी और कबीर ने भी करी। और जब लोग नहीं समझते हैं, तो कबीर भी अभिव्यक्त करते हैं, कि ‘भये कबीर उदास’। और कहते हैं कबीर भी कि मैं तो समझा रहा हूँ, तुम समझते नहीं हो। पर कबीर की अभिव्यक्ति इसलिए नहीं है कि कबीर के व्यक्तिगत स्वार्थ पर या व्यक्तिगत हित पर कोई चोट लग रही है।

कबीर यदि उदास होते हैं, तो हमारे लिए होते हैं। और हम जब उदास होते हैं। तो अपने लिए होते हैं।

देने का हक़ तुम्हें तब है, जब तुम्हारी उदासी भी दूसरों के लिए हो, अपने लिए नहीं। तुम्हें बुरा लगा, ठीक। कोई बात नहीं। पर बुरा इसलिए लगे कि दूसरे दुःख में हैं। जब ऐसे बुरा लगता है, तो उस बुरा लगने को एक बड़ा विशिष्ट नाम दिया गया है, वो नाम है ‘करुणा’ — कम्पैशन।और जब अपने…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org