सभी संत लम्बे बाल और दाढ़ी क्यों रखते हैं?
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प्रश्न: आचार्य जी, ज़्यादातर संतजन लम्बे बाल और दाढ़ी क्यों रखते हैं?
आचार्य प्रशांत जी: रखते नहीं हैं, लम्बे बाल और दाढ़ी तो होते ही हैं। कभी शेर से पूछा है, बब्बर शेर से, “तेरे मुँह पर इतने लम्बे-लम्बे बाल क्यों हैं?” पूछा है? रखते नहीं हैं — होते हैं। रखते तुम हो, क्या? चिकना चेहरा। तो जवाब तुम्हें देना है कि — तुम क्यों रखते हो चिकना चेहरा? संत कुछ नहीं रखता। बाल स्वयं बढ़े हैं, दाढ़ी स्वयं बढ़ी है। हाथी से पूछोगे, “तुम इतने लम्बे कान क्यों रखते हो?” वो रखता थोड़े ही है — हैं।
संत भी भीतर समाधिस्थ होता है, बाहर प्रकृतिस्थ होता है। उसे क्या विरोध है, हाथों से, कि कान से, कि दाढ़ी से, कि बाल से। बढ़ रहे हैं, तो बढ़ जाएँ। उसको चिकना बनकर थोड़े ही घूमना है। तुम बताओ — तुम्हें चिकना बनकर क्यों घूमना है? चिकना बनने की लालसा तो तुम्हारी है। तुम रोज़ सुबह-सुबह चेहरा घिसते हो, समय लगाते हो, श्रम करते हो। क्यों करते हो इतना श्रम?
संत तो बस — जैसा है, वैसा है।
वो हाथी के कान जैसा है, वो शेर के मुँह जैसा है।
नदी जैसा है, पहाड़ जैसा है।
प्रश्नकर्ता: कोई कंटाई-छंटाई नहीं।
आचार्य जी: एक अवस्था ऐसी भी आती है, जब वो कपड़े भी छोड़ देता है। वो कहता है, “बिलकुल ही बब्बर-शेर हो गए।” तो उससे ये थोड़े ही पूछोगे, “ये क्या फैशन है, नया?” ये कोई नया फैशन नहीं है। उसने समस्त फैशनों का त्याग कर दिया। वो कह रहा है, “अब, कुछ नहीं”।
लेकिन ये आवश्यक नहीं है।
ये संतत्व के अनिवार्य लक्षणों में नहीं है कि — कपड़ा ऐसा होगा, दाढ़ी ऐसी होगी, बाल ऐसे होंगे, बोलचाल ऐसी होगी। बाल बड़े भी हो सकते हैं, और सिर घुटा हुआ भी हो सकता है। या साधारण, जैसे बाकी लोग बाल कटाकर रखते हैं, वो वैसा भी हो सकता है।
ये कोई अनिवार्य बात नहीं है।
अनिवार्य तो एक ही होता है — जो अनिवार्य है।
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