सफलता की दौड़ में ही असफलता का भाव निहित है

जब आप सफल नहीं हैं। जितनी गहराई से आप में असफलता का, सफलता की कमी का भाव होगा, जितना ज़्यादा आपको ये एहसास होगा कि अगर आपने पाया नहीं तो आप छोटे रह जायेंगे, उतनी ज़्यादा कशिश से आप सफलता के पीछे दौड़ते हैं।

सफलता की दौड़ में ही असफलता का भाव निहित है।

सवाल ये नहीं है कि, “दौड़ने से सफलता मिल भी तो सकती है?”। यहाँ पर बात कार्य-कारण की नहीं हो रही है। बात ये हो रही है कि “आप दौड़ ही क्यों रहे हैं?”

मुझे अपना नहीं पता कि कौन-सी वृत्ति है जो मुझसे पीछा करवा रही है। कौन सी वृत्ति है जिसके कारण मैं डर कर, या लालच में, या सिर्फ़ नकल में, या जो भी मेरी वजह है, उस वजह में मैं भागा जा रहा हूँ। मुझे अपना नहीं पता। एक अँधा आवेग आता है और मेरे ऊपर छा जाता है। मैं अपने आपको नहीं जानता! मुझे क्या पता बुद्ध का? बुद्ध के मन का आपको क्या पता है? आपको अपने मन का नहीं पता। और इस बात को आप खुद स्वीकार करते हैं, पर आप उदाहरण देना चाहते हैं बुद्ध का।

बुद्ध क्या कर रहे हैं, बुद्ध हैं क्या — इसका आपको पता है? आप अपने मन को देखिए न। आप अपने तथ्य को देखिए। आप क्या कर रहे हैं, उसकी हकीकत को देखिए। और आपसे नहीं कहा जा रहा कि उसमें कुछ अच्छा है या उसमें कुछ बुरा है। अच्छा-बुरा, पीछे की, बाद की बात है; ‘है’ — हमारी ज़िन्दगी तो ऐसे बीतती है न कि जो ‘है’, उसको हम कह रहे होते हैं कि ‘नहीं है’। पहले तो ये जानिए कि ‘है’।

आप जब सफलता के पीछे भाग रहे होते हैं, तो आप तो बड़े गर्व के साथ कह रहे होते हैं न कि मुझे कुछ चाहिए। आप तब ये थोड़े ही स्वीकार कर रहे होते हैं कि :डर ‘है’; मायूसी ‘है’; खालीपन ‘है’; कमी का एहसास ‘है’। सच्चाई का तकाज़ा ये है कि जो तथ्य ‘है’, उसको देखा जाए, और उसको स्वीकार किया जाए, “हाँ, ‘है’”। और स्वीकार करने के बाद फिर आपका जो मन चाहे, करिएगा। आप भागे जा रहे हो और आप ये स्वीकार कर लो कि आप डर के मारे भाग रहे हो, उसके बाद आपका अभी भी भागने का मन कर रहा है, तो भागो। कोई आपसे ये नहीं कह रहा है कि भागना बुरी बात है। सवाल अच्छे-बुरे का नहीं है; सवाल इसका है कि क्या तुम ‘जानते’ हो कि “क्या ‘है’?”।

जान तो लो।

पर, हम बड़े बिंदास लोग हैं। हमारी ये जानने में कोई रूचि होती ही नहीं है कि हमारा क्या हाल है। ‘है’ शब्द से हमें कोई सरोकार ही नहीं होता। हमें इससे ज़्यादा सरोकार होता है कि दुनिया में क्या चल रहा है। अरे, जिसे अपना नहीं पता, वो दुनिया का क्या हाल बताएगा?

आप जा रहे हो कहीं, आपको रास्ता पूछना है, और वहाँ एक सामने, मरता, गिरता, लड़खड़ाता शराबी चला आ रहा है, जो आपकी कार को अपना घर समझ रहा है, और दरवाज़ा खोलने की कोशिश कर रहा है, आप उससे रास्ता पूछोगे? जिसे अपना नहीं पता वो आपको क्या रास्ता बताएगा? जिसे अपना नहीं पता, उसे दुनिया का क्या हाल पता होगा? जिसको ये नहीं पता कि उसका घर कहाँ हैं, क्या उसे ये पता होगा कि आप कौन हैं, और आपको कहाँ जाना है, और दुनिया में कौन-सा रास्ता कहाँ को जाता है? तो इतना तो आप समझते ही हो न कि जिसे अपना हाल ना पता हो, उसे दुनिया का कुछ पता नहीं हो सकता, या हो सकता है?

पर जीते तो हम ऐसे ही हैं!

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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