सफलता की असली परिभाषा
प्रश्नकर्ता: क्या सफ़लता सब कुछ होती है समाज के लिए? क्या हमें सिर्फ सफ़लता से ही मतलब होना चाहिए।
आचार्य प्रशांत: समाज तो यही चाहता है! समाज तो यही चाहता है कि तुम एक पूर्व निर्धारित राह पर चलो और उस राह पर जो जितनी ज़ोर से चले और जितनी दूर तक जाए उसी को सफल माना जाता है। ठीक है न?
जैसे कि ये नौकर था, इसको सफल कब मानेंगे इसके मालिक? जब वो उनके सारे काम कर दे। लेकिन सवाल ये उठता है कि नौकर ने मालिक की गाड़ी साफ भी कर दी और गाड़ी चमचमा भी गयी और गाड़ी बाकी सारी गाड़ियों से ज़्यादा साफ़ भी दिख रही है तो भी नौकर को क्या मिल गया? किसी और ने तुम्हें लक्ष्य दे दिया कि तुमको ये कर के दिखाना ही है जीवन में और तुमने अपना पूरा जीवन उसी लक्ष्य को समर्पित कर दिया वो लक्ष्य यदि मिल भी गया तो तुम्हें क्या मिल गया? बधाई हो राय साहब! लड़का पैदा हुआ है। हाँ जी गुप्ता जी, इसको तो हम इंजीनियर बनाएँगे।
मैं मिट्टी को लूँ और उसका दीपक बना दूँ, तो भी प्रकाश तो मुझे ही मिल रहा है, मिट्टी को क्या मिल गया? वो तो बेजान ही रह गई न और तुम्हें बहुत ईमानदारी से अपने आपको पूछना पड़ेगा कि सफलता की परिभाषा ही यही है कि लक्ष्य को पा लेना। ठीक? लक्ष्य है, लक्ष्य को पा लिया तो तुम कहते हो मैं सफ़ल हो गया।
तो सफलता तो पीछे की बात है, पहले ये बताओ कि तुम्हारे लक्ष्य कहाँ से आ रहे हैं? एक भी लक्ष्य अपना है? जब मन ही अपना नहीं तो लक्ष्य कहाँ से अपना हो गया? लक्ष्य अगर सीधे-सीधे दूसरे दे रहे हैं तो वो तो गुलामी है ही और अगर ये भी दावा करते हो कि मेरे मन से लक्ष्य आ रहा है, तो…