सफलता का राज़
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपकी सफलता के पीछे क्या राज़ है?
आचार्य प्रशांत: राज़ कुछ भी नहीं है। बात सिर्फ इतनी सी थी कि सक्सेस (सफलता) वगैरह का कभी बहुत सोचा नहीं। हर कदम पर जो उचित लगा वो करता गया, उसी से अगला कदम निकलता चला गया। सक्सेस की बात सोच कर के तो मैं तुम्हारे सामने नहीं बैठा होता।
जो लोग उन बैकग्राउंड (पृष्ठभूमि) से आते हैं जहाँ से मैं हूँ, उनके सपने दूसरी तरह के होते हैं। उनकी सोच, कल्पनाएँ, लक्ष्य दूसरे होते हैं। वो कहते हैं कि अगर मेरा दस साल का कॉरपोरेट एक्सपीरियंस हो जाए तो मुझे न्यूयॉर्क में किसी इन्वेस्टमेंट बैंक में बिलकुल टॉप पोज़ीशन पर होना चाहिए। सोच ये नहीं होगी कि मैं कानपुर में होऊँगा और तुमसे बात कर रहा होऊँगा।
सक्सेस की सोचता तो तुम्हारे सामने नहीं बैठा होता।
जीवन ऐसा नहीं बीता है कि उसमें बहुत योजना बना कर काम किया गया हो। एक-एक कदम रखे और हर कदम पर, जैसा मैंने कहा, जो उचित लगा उसी से अगला कदम निकलता चला गया। और इसीलिए उसमें एक मज़ा है, एक अनियोजिता है, अनप्रेडिक्टेबिलिटी, और इसीलिए आगे बढ़ने का मज़ा भी है क्योंकि पता नहीं है कि आगे क्या बैठा हुआ है। अगर पहले से ही पता है कि कल क्या होने जा रहा है तो फिर जीने में भी मज़ा नहीं रह जाता।
और ये पक्का है कि जो भी करता था, ईमानदारी से करता था। जो भी मेरी स्थिति होती थी, मुझे पता होता था कि ये मेरी स्थिति है, अपनेआप से झूठ कभी नहीं बोला। अगर मुझे दिख रहा होता था कि कोई काम मुझे ज़बरदस्ती करना पड़ रहा है तो ये मैंने स्वीकार किया कि, “हाँ, ज़बरदस्ती कर रहा हूँ”। ये नहीं कहा अपनेआप से कि, “नहीं, इसीलिए कर रहा हूँ क्योंकि मन है”।
तो अपनी जैसी भी स्थिति थी — अच्छी, बुरी, मन-मुताबिक, मन-विरुद्ध — उसको जानता रहा।
ये नहीं भूला कि मुझे ये काम ठीक लग रहा है कि नहीं। विपरीत परिस्थितियाँ भी रही हैं, ऐसे भी दिन रहे जब ऐसे काम करे जिसमें कोई मन था नहीं अपना। पर तब भी इस बात की स्मृति लगातार बनी रही कि ये ज़बरदस्ती ही हो रही है और इसको बहुत दिन तक चलना नहीं है। भीड़ में खो नहीं गया। अपनेआप से झूठ नहीं बोल दिया। बस वैसे ही है। चलते-चलते यहाँ तक पहुँच गए हैं। इसमें और कोई बड़ा राज़ नहीं।
तो और तुम एक बात पूछना चाहोगे कि एक बात क्या रही, तो एक बात ये रही है कि अपने प्रति ईमानदार रहो। अपने प्रति ईमानदार रहो, साफ़-साफ़ तुम्हें पता रहे कि अभी क्या बात है। और उस ईमानदारी से अगला कदम अपनेआप निकल आएगा।
आदमी जब अपनेआप से झूठ बोलना शुरू कर देता है, जब खुद ही तय कर लेता है कि अपनेआप को धोखे में रखना है, तब फिर कोई इलाज संभव नहीं हो पाता। कोई बाहर वाला आपको धोखा दे रहा हो, आप चेत सकते हो, पर जब खुद ही धोखा दिया जा रहा हो, सेल्फ-डिसेप्शन चल रहा हो, तब बड़ी मुश्किल हो जाती है। वो मत करना।
जीवन को साफ़-साफ़ देखते रहो और तुम्हें स्पष्ट पता रहे कि ‘ये’ बात है। अपनी नज़र से पता रहे।
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