सदा याद रखने योग्य

सवित्रा प्रसवेन जुषेत ब्रह्म पूर्व्यम्‌। यत्र योनिं कृणवसे न हि ते पूर्तमक्षिपत्‌॥

"सविता देवता के द्वारा प्रेरित होकर, हमें सबके आदिकारण परमात्मा की आराधना करनी चाहिए। हे साधक! तुम उसी परमात्मा का आश्रय ग्रहण करो। इससे तुम्हारे पूर्त कर्म (पुण्य कर्म और स्मार्त कर्म) भी बन्धन प्रदायक नहीं होंगे।"

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय २, श्लोक ७)

आचार्य प्रशांत: सविता माने जो तुम्हारा प्रथम लक्ष्य है, उसकी उपासना ही ब्रह्म की उपासना है। वास्तव में ब्रह्म की कोई सीधी उपासना हो नहीं सकती, क्योंकि तल अलग-अलग हैं। तुम साकार हो और तुम्हारे पास विचार है। ब्रह्म निराकार और निर्विचार है। ये दो ना मिलने वाले तल हैं। इसीलिए अगर तुमको प्रार्थना भी करनी है तो अपने ही तल पर जो उच्चतम है उसी की करनी पड़ेगी। अपने ही तल पर जो मूल है, मौलिक और प्रथम है, उसी की करनी पड़ेगी।

तो, "हमें परमात्मा की आराधना करनी चाहिए। हे साधक! तुम उसी परमात्मा का आश्रय ग्रहण करो, इससे तुम्हारे पूर्त कर्म भी बन्धक प्रदायक नहीं होंगे।"

पूर्त कर्म माने वो जो तुमको धर्म के कारण करने ही पड़ते हैं। धर्म कहता है कुछ काम है जो पुण्य के लिए करने चाहिए। इसी तरीके से स्मृतियाँ कहती हैं कि ये काम हैं जो तुम्हें सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए करने ही होंगे। जो काम नैतिकता के कारण करने पड़ें वो पुण्य कर्म कहलाते हैं। जो काम सामाजिक व्यवस्था आदि बनाए रखने के कारण करने पड़ें, वो स्मार्त कर्म कहलाते हैं।

तो श्लोक कह रहा है कि ये सारे काम जो तुम सिर्फ़ इस समाज में रहने के कारण करते ही हो, वो भी तुम्हारे लिए बंधक नहीं बनेंगे अगर उन सब कामों को करते समय तुम्हें…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org