सत्य — सज़ा भी, दवा भी

मन जैसे जैसे सच्चाई के संपर्क में आता है, उसके साथ दो घटनाएँ घटती हैं। पहली तो ये कि डर छोड़ता जाता है और दूसरी ये कि क्योंकि वो डर से ही पोषण पाता था, डर पर ही ज़िंदा रहता था, तो डर छोड़ने के कारण बेचैन होता जाता है। ये तो उसको दिखता है कि डर छोड़ा है, तो हल्कापन है। ये तो उसको दिखता है कि ज़िम्मेदारी छोड़ी है, भविष्य की चिंता छोड़ी है, तो एक हलकापन है। लेकिन आदत से मजबूर होता है। पुरानी आदत लगी होती है ना। पुरानी आदत उससे बोलती है कि तूने ज़िन्दगी में जो भी पाया, जितनी भी सफलता, जितनी भी सक्सेस पायी, वो हिंसा से पायी, डर से पायी, प्रतिस्पर्धा से पायी, तुलना से पायी, चिंता से पायी, योजना से पायी। तो मन तर्क ये देता है कि अगर तूने ये सारी चीज़ें छोड़ दीं, सफलता की चाह, योजना बनाना, तुलना करना, डर में जीना, लक्ष्य पाने के तनाव में रहना, अगर तूने ये सारी चीज़ें छोड़ दीं, तो तेरा होगा क्या? क्योंकि आज तक तो तू इन्हीं पे ज़िंदा रहा है और आज तक तुझे जो मिला है, वो इन्हीं के चलते मिला है। तू इन्हें छोड़ देगा, तो तेरा होगा क्या? ये मन का तर्क है।

अब ये दोनों बातें, परस्पर विरोधी होते हुए भी एक साथ रह लेती हैं। विडंबना है, बड़ी विचित्र बात है कि मन में ये दोनों स्थितियाँ, ये दोनों केंद्र, एक साथ रह लेते हैं। पहला ये कि समझ गया है, समझ भी गया है, और उसको भला सा भी प्रतीत हो रहा है। उसे अच्छा लग रहा है ये हल्कापन। उसे रास आ रहा है। वो और चाहता है। उसे और मिले तो और ग्रहण करेगा। और मिले क्या? जहाँ मिले, वहाँ जाना चाहेगा। तुम उड़ के आ रहे हो।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org