सत्य समझ में क्यों नहीं आता
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं ध्यान नहीं करती। आँखें तो बंद हैं ही, और बंद करके क्या फ़ायदा? कोई साधना भी नहीं करती। साधना और साध्य यदि दो हैं तो गोल-गोल चक्कर काटने से क्या फ़ायदा? बस सत्संग देखना-सुनना, साहित्य पढ़ना, राम कथा, भागवत कथा भाव से सुनना-देखना — इन सब में शांति और सुकून मिलता है। फिर भी कुछ बचा है, ऐसा लगातार महसूस होता रहता है।
ये प्यास बुझते रहने में नहीं है बल्कि और बढ़ते रहने में ही इसकी वास्तविकता है, फिर भी दिल में कुछ अजीब-सी चुभन है, जो चुभन तो देती है पर सुनते-सुनते जब कभी भाव में आँखें भीग जाती हैं तो सुकून भी देती है। समझ नहीं आता कि ये सब क्या है।
आचार्य प्रशांत: स्वयं को सुंदर नाम दिया है इन्होंने, असीम अज्ञात।
असीम को पाने की ख़ातिर उतावले तो हम सब हैं। ज़ाहिर-सी बात है कि जो कुछ सीमित है वो चुक जाएगा, चुक जाता है, और पूर्ण मौज, पूरी सुरक्षा, अनंत आनंद नहीं दे पाता। तो भला ही करती हैं आप कि ध्यान नहीं करतीं, ध्यान का समय चुक जाना है। ठीक ही है कि साधना की विधियों से आपका कोई सरोकार नहीं, हर विधि आपको एक बिन्दु पर लाकर छोड़ देगी। कुछ ऐसा चाहिए आपको जो ऐसा भरपूर हो कि चुकता ही न हो। जो आपको जगह ही न दे बेचैन भी हो पाने की, घेर ले चारों तरफ़ से — ऊपर से, नीचे से, अंदर से, बाहर से — राई भर भी जगह न बचे आपके लिए। बेचैनी दस्तक भी दे तो पाँव रखने की जगह न पाए। हर तरफ़ तो पूर्णता है, बेचैनी को रखूँ कहाँ? अवकाश कहाँ है? समय कहाँ है? कहाँ है स्थान? तो ज़ाहिर-सी बात है, असीम चाहिए।